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________________ ( १ ) सामिष निरामिष आहार [ खाद्याखाद्यविवेक सब से पहले हम बौद्ध, वैदिक और जैन ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन के धार पर निर्ग्रन्थ परम्परा के खाद्याखाद्य विवेक के विषय में कुछ विचार करना चाहते हैं । खाद्याखाद्य से हमारा मुख्य मतलब यहाँ माँस-मत्स्यादि वस्तुत्रों से है । जैन समाज में क्षोभ व आन्दोलन थोड़े ही दिन हुए जब कि जैन समाज में इस विषय पर उग्र ऊहापोह शुरू हुआ था । अध्यापक कौसांबीजी ने बुद्ध चरित में लिखा है कि प्राचीन जैन श्रमण भी माँस-मत्स्यादि ग्रहण करते थे । उनके इस लेख ने सारे जैन समाज में एक व्यापक क्षोभ और आन्दोलन पैदा किया था जो अभी शायद ही पूरा शान्त हुआ हो । करीब ५० वर्ष हुए इसी विषय को लेकर एक महान क्षोभ व श्रान्दोलन शुरू हुआ था जब कि जर्मन विद्वान याकोबी ने आचाराङ्ग के अंग्रेजी अनु में अमुक सूत्रों का अर्थ माँस- मत्स्यादि परक किया था । हमें यह नहीं समना चाहिए कि अमुक सूत्रों का ऐसा अर्थ करने से जैन समाज में जो क्षोभ व आन्दोलन हुआ वह इस नए युग की पाश्चात्य - शिक्षा का ही परिणाम है । वाद जब हम १२००-१३०० वर्ष के पहले खुद जैनाचार्यों के द्वारा लिखी हुई प्राकृत संस्कृत टीका को देखते हैं तब भी पाते हैं कि उन्होंने अमुक सूत्रों का अर्थ माँस-मत्स्यादि भी लिखा है । उस जमाने में भी कुछ लोभ व ग्रान्दोलन हुआ होगा इसकी प्रतीति भी हमें अन्य साधनों से हो जाती है । प्रसिद्ध दिगम्बराचार्यं पूज्यपाद देवनन्दी ने उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र के ऊपर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखी है उसमें उन्होंने आगमों को लक्ष्य करके जो बात कही है वह सूचित करती है कि उस छठी सदी में भी अमुक सूत्रों का माँसमत्स्यादि पर अर्थ करने के कारण जैन- समाज का एक बड़ा भाग क्षुब्ध हो उठा था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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