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________________ भगवान् महावीर का जीवन करता है। चाहे कोई फिरका उसकी बात माने या न माने वह अपनी बात विवेक, निष्पक्षता और निर्भयता से कहेगा व लिखेगा । इस बरह ऐतिहासिक का प्रयत्न सत्यमुखी और व्यापक बन जाता है। यही कारण है कि नवयुग उसी का आदर करता है। अब हम संक्षेप में यह देखेंगे कि ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर-जीवन लिखने की क्या क्या सामग्री है ? सामग्री के मुख्य तीन स्रोत हैं। साहित्यिक, भौगोलिक तथा परंपरागत आचार व जीवन । साहित्य में वैदिक, बौद्ध और जैन प्राचीन वाङ्मय का समावेश होता है। भौगोलिक में उपलब्ध वे ग्राम, नदी, नगर, पर्वत आदि प्रदेश हैं जिनका संबंध महावीर के जीवन में प्रसङ्ग-प्रसङ्ग पर आता है। परंपरा से प्राप्त वह आचार और जीवन भी जीवनी लिखने में उपयोगी हैं जिनका एक या दूसरे रूप से महावीर के जीवन तथा उपदेश के साथ एवं महावीर की पूर्व परंपरा के और समकालीन परंपरा के साथ संबन्ध है, चाहे वह उस पुराने रूप में भले ही आज न हो और परिवर्तित एवं विकृत हो गया हो। ऐतिहासिक दृष्टि उक्त सामग्री के किसी भी अंश की उपेक्षा नहीं कर सकती और इसके अलावा भी कोई अन्य स्रोत मालूम हो जाए तो वह उसका भी स्वागत करेगी। __ ऊपर जिस सामग्री का निर्देश किया है, उसका उपयोग ऐतिहासिक दृष्टि से जीवनी लिखने में किस-किस तरह किया जा सकता है इस पर भी यहाँ थोड़े में प्रकाश डालना जरूरी है। किसी भी महान् पुरुष की जीवनी को जब हम पढ़ते हैं तब उसके लेखक बहुधा इष्ट पुरुषों की लोगों के मन पर पड़ी हुई महत्ता की छाप को कायम रखने और उसे और भी पुष्ट करने के लिए सामान्य जन-समाज में प्रचलित ऐसी महत्तासूचक कसौटियों पर अधिकतर भार देते हैं और वे महत्ता की असली जड़ को बिल्कुल भुला न दें तो भी उसे गौण तो कर ही देते हैं अर्थात् उस पुरुष की महत्ता की असली चाबी पर उतना भार वे नहीं देते जितना भार साधारण लोगों की मानी हुई महत्ता की कसौटियों का वर्णन करने पर देते हैं । इसका फल यह होता है कि जहाँ एक तरफ से महत्ता का मापदण्ड बनावटी हो जाता है वहाँ दूसरी तरफ से उस पुरुष की महत्ता की असली चाबी का मूल्यांकन भी धीरे-धीरे लोगों की दृष्टि में अोझल हो जाता है। सभी महान् पुरुषों की जीवनियों में यह दोष कमोबेश देखा जाता है। भगवान् महावीर की जीवनी को उस दोष से बचाना हो तो हमें साधारण लोगों की रूढ़ रुचि की पुष्टि का विचार बिना किए ही असली वस्तु का विचार करना होगा। भगवान् के जीवन के मुख्य दो अंश हैं—एक तो आत्मलक्षी-जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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