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जैन धर्म और दर्शन अपनी आत्मशुद्धि के लिए किए गए भगवान् के समग्र पुरुषार्थ का समावेश होता है । दूसरा अंश वह है जिसमें भगवान् ने परलक्षी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की है । जीवनी के पहिले अंश का पूरा वर्णन तो कहीं भी लिखा नहीं मिलता फिर भी उसका थोड़ा-सा पर प्रामाणिक और अतिरंजनरहित प्राचीन वर्णन भाग्यवश आचारांग प्रथम श्रुत स्कंध के नवम अध्ययन में अभी तक सुरक्षित है। इससे अधिक पुराना और अधिक प्रामाणिक कोई वर्णन अगर किसी ने लिखा होगा तो वह आज सुरक्षित नहीं है। इसलिए प्रत्येक ऐतिहासिक लेखक को भगवान् की साधनाकालीन स्थिति का चित्रण करने में मुख्य रूप से वह एक ही अध्ययन उपयोगी हो सकता है। भले ही वह लेखक इस अध्ययन में वर्णित साधना की पुष्टि के लिए अन्य-अन्य आगमिक भागों से सहारा ले; पर उसे, भगवान् की साधना कैसी थी इसका वर्णन करने के लिए उक्त अध्ययन को ही केन्द्रस्थान में रखना होगा। ___ यद्यपि वैदिक परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में भगवान् के नाम तक का निर्देश नहीं है फिर भी जब तक हम प्राचीन शतपथ श्रादि ब्राह्मण ग्रन्थ और आपस्तम्ब, कात्यायन आदि श्रौत-सूत्र न देखें तब तक हम भगवान् की धार्मिक-प्रवृत्ति का न तो ठीक-ठीक मूल्य आँक सकते हैं और न ऐसी प्रवृत्ति का वर्णन करने वाले आगमिक भागों की प्राचीनता अोर महत्ता को ही समझ सकते हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के जीवन में विविध यज्ञों का धर्मरूप से कैसा स्थान था और उनमें से अनेक यज्ञों में गाय, घोड़े, भेड़, बकरे आदि पशुओं का तथा मनुष्य तक का कैसा धार्मिक वध होता था एवं अतिथि के लिए भी प्राणियों का वध कैसा धर्म्य माना जाता था—इस बात की आज हमें कोई कल्पना तक नहीं हो सकती है जब कि हजारों वर्ष से देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पुरानी यज्ञप्रथा ही बंद हो गई है और कहीं-कहीं व कभी-कभी कोई यज्ञ करते भी हैं तो वे यज्ञ बिल्कुल ही अहिंसक होते हैं ।
धर्मरूप से अवश्य कर्त्तव्य माने जानेवाले पशुवध का विरोध करके उसे श्राम तौर से रोकने का काम उस समय उतना कठिन तो अवश्य था जितना
१. शतपथ ब्राह्मण का० ३; अ० ७, ८,६ । का० ४; अ०६। का०५3;
अ० १, २,५ । का०६; अ० २ । का० ११; अ०७,८। का० १२; अ० ७ । का० १३ ; अ० १, २, ५ इत्यादि । कात्यायन श्रौतसूत्र-अच्युत ग्रन्थमाला भूमिकागत यज्ञों का वर्णन ।
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