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.. जैन धर्म और दर्शन चय दिया, वैसा आज तक की तपस्या के इतिहास में किसी व्यक्ति ने दिया हो यह नहीं दिखाई देता। कितने लोग महावीर के तप को देह-दुःख और देहदमन कह कर उसकी अवहेलना करते हैं। परन्तु यदि वे सत्य तथा न्याय के लिए महावीर के जीवन पर गहरा विचार करेंगे तो यह मालूम हुए बिना न रहेगा कि, महावीर का तप शुष्क देह-दमन नहीं था। वह संयम और तप दोनों पर समान रूप से जोर देते थे। वह जानते थे कि यदि तप के अभाव से सहनशीलता कम हुई तो दूसरों की सुख सुविधा की आहुति देकर अपनी सुख-सुविधा बढ़ाने की लालसा बढ़ेगी और उसका फल यह होगा कि संयम न रह पाएगा। इसी प्रकार संयम के अभाव में कोरा तप भी, पराधीन प्राणी पर अनिच्छापूर्वक आ पड़े देह-कष्ट की तरह निरर्थक है ।
ज्यों-ज्यों संयम और तप की उत्कटता से महावीर अहिंसा तत्त्व के अधिकाधिक निकट पहुँचते गए, त्यों-त्यों उनकी गम्भीर शान्ति बढ़ने लगी और उसका प्रभाव आसपास के लोगों पर अपने-आप होने लगा। मानस-शास्त्र के नियम के अनुसार एक व्यक्ति के अन्दर बलवान् होने वाली वृत्ति का प्रभाव आस-पास के लोगों पर जान-अनजान में हुए बिना नहीं रहता।
इस साधक जीवन में एक उल्लेख-योग्य ऐतिहासिक घटना घटती है। वह यह है कि महावीर की साधना के साथ गोशालक नामक एक व्यक्ति प्रायः ६ वर्ष व्यतीत करता है और फिर उनसे अलग हो जाता है। आगे चल कर यह उनका प्रतिपक्षी होता है और आजीवक सम्प्रदाय का नायक बनता है । आज यह कहना कठिन है कि दोनों किस हेतु से साथ हुए और क्यों अलग हुए, परन्तु एक प्रसिद्ध श्राजीवक सम्प्रदाय के नायक और तपस्वी महावीर का दीर्घ काल तक साहचर्य सत्यशोधकों के लिए अर्थसूचक अवश्य है। १२ वर्ष की कठोर और दीर्घ साधना के पश्चात् जब उन्हें अपने अहिंसा तत्त्व के सिद्ध हो जाने की पूर्ण प्रतीति हुई, तब वे अपना जीवन-क्रम बदलते हैं । अहिंसा का सार्वभौम धर्म उस दीर्घ-तपस्वी में परिप्लुत हो गया था, अब उनके सार्वजनिक जीवन से कितनी ही भव्य आत्माओं में परिवर्तन हो जाने की पूर्ण सम्भावना थी। मगध और विदेह देश का पूर्वकालीन मलीन वायु-मण्डल धीरे-धीरे शुद्ध होने लगा था, क्योंकि उसमें उस समय अनेक तपस्वी और विचारक लोक-हित की आकांक्षा से प्रकाश में आने लगे थे। इसी समय दीर्घ तपस्वी भी प्रकाश में आए। उपदेशक जीवन
श्रमण भगवान का ४३ से ७२ वर्ष तक का यह दीर्घ जीवन सार्वजनिक
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