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________________ दीर्घ तपस्वी महावीर २६ ख्याति को प्राप्त करता है । महावीर के साधना विषयक आचारांग के प्राचीन और प्रामाणिक वर्णन से, उनके जीवन की भिन्न-भिन्न घटनात्रों से तथा ब तक उनके नाम से प्रचलित सम्प्रदाय की विशेषता से, यह जानना कठिन नहीं है कि महावीर को किस तत्त्व की साधना करनी थी, और उस साधना के लिए उन्होंने मुख्यतः कौन से साधन पसन्द किए थे । महावीर हिंसा-तत्त्व की साधना करना चाहते थे, उसके लिए संयम और तप यह दो साधन उन्होंने पसन्द किए। उन्होंने यह विचार किया कि संसार में जो बलवान् होता है, वह निर्बल के सुख और साधन, एक डाकू की तरह छीन लेता है । यह अपहरण करने की वृत्ति अपने माने हुए सुख के राग से, खास करके कायिक सुख-शीलता से पैदा होती है । यह वृत्ति ही ऐसी है कि इससे शान्ति और समभाव का वायु मण्डल कलु - पित हुए बिना नहीं रहता है । प्रत्येक मनुष्य को अपना सुख और अपनी सुविधा इतने कीमती मालूम होते हैं कि उसकी दृष्टि में दूसरे अनेक जीवधारियों की सुविधा का कुछ मूल्य ही नहीं होता । इसलिए प्रत्येक मनुष्य यह प्रमाणित करने की कोशिश करता है कि जीव, जीव का भक्षण है 'जीवो जीवस्य जीवनम् ।' निर्बल को बलवान् का पोषण करके अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी चाहिए । सुख के राग से ही बलवान् लोग निर्बल प्राणियों के जीवन की आहुति देकर उसके द्वारा अपने परलोक का उत्कृष्ट मार्ग तैयार करने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार सुख की मिथ्या भावना और संकुचित वृत्ति के ही कारण व्यक्तियों और समूहों में अन्तर बढ़ता है, शत्रुता की नींव पड़ती है और इसके फलस्वरूप निर्बल बलवान् होकर बदला लेने का निश्चय तथा प्रयत्न करते हैं और बदला लेते भी हैं । इस तरह हिंसा और प्रतिहिंसा का ऐसा मलीन वायुमण्डल तैयार हो जाता है कि लोग संसार के सुख को स्वयं ही नर्क बना देते हैं । हिंसा के इस भयानक स्वरूप के विचार से महावीर ने हिंसा-तत्त्व में ही समस्त धर्मों का, समस्त कर्त्तव्यों का, प्राणीमात्र की शान्ति का मूल देखा । उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई दिया कि यदि हिंसा-तत्त्व सिद्ध किया जा सके, तो ही जगत् में सच्ची शान्ति फैलाई जा सकती है । यह विचार कर उन्होंने कायिक सुख की समता से वैर-भाव को रोकने के लिए तप प्रारम्भ किया, और धैर्य जैसे मानसिक दोष से होने वाली हिंसा को रोकने के लिए संयम का अवलम्बन किया । संयम का संबन्ध मुख्यतः मन और वचन के साथ होने के कारण उसमें ध्यान और मौन का समावेश होता है। महावीर के समस्त साधक जीवन में संयम सिद्ध करने के लिए उन्होंने कोई जिस तत्परता और अप्रमाद का परि और तप यही दो बातें मुख्य हैं और उन्हें १२ वर्षो तक जो प्रयत्न किया और उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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