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________________ जैन धर्म और दर्शन तप की भावना प्रबल थी । भगवान् का अपने कुलधर्म के परिचय में आना और उस धर्म के आदर्शों का उसके सुसंस्कृत मन को आकर्षित करना सर्वथा संभव है। एक ओर जन्मसिद्ध वैराग्य के बीच और दूसरी ओर कुलधर्म के त्याग और तपस्या के आदशों का प्रभाव, इन दोनों कारणों से योग्य अवस्था को प्राप्त होते ही वर्धमान ने अपने जीवन का कुछ तो ध्येय निश्चित किया ही होगा । और वह ध्येय भी कौनसा ? 'धार्मिक जीवन' । इस कारण यदि विवाह की ओर अरुचि हुई हो तो वह साहजिक है। फिर भी जब माता-पिता विवाह के लिए बहुत आग्रह करते हैं, तब वर्धमान अपना निश्चय शिथिल कर देते हैं और केवल माता-पिता के चित्त को सन्तोष देने के लिए वैवाहिक संबन्ध को स्वीकार कर लेते हैं। इस घटना से तथा बड़े भाई को प्रसन्न रखने के लिए गृहवास की अवधि बढ़ा देने की घटना से वर्धमान के स्वभाव के दो तत्त्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। एक तो बड़े-बूढ़ों के प्रति बहुमान और दूसरे मौके को देखकर मूल सिद्धान्त में बाधा न पड़ने देते हुए, समझौता कर लेने का औदार्य । यह दूसरा तत्त्व साधक और उपदेशक जीवन में किस प्रकार काम करता है, यह हम आगे चलकर देखेंगे। जब माता-पिता का स्वर्गवास हुआ, तब वर्धमान की उम्र २८ वर्ष की थी। विवाह के समय की अवस्था का उल्लेख नहीं मिलता। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वर्धमान ने गृहत्याग की पूरी तैयारी कर ली थी, परन्तु इससे ज्येष्ठ बन्धु को कष्ट होते देख गृहजीवन को दो वर्ष और बढ़ा दिया। परन्तु इसलिए कि त्याग का निश्चय कायम रहे, गृहवासी होते हुए भी आपने दो वर्ष तक त्यागियों की भाँति ही जीवन व्यतीत किया। साधक जीवन तीस वर्ष का तरुण क्षत्रिय-पुत्र वर्धमान जब गृह त्याग करता है, तब उसके प्रान्तर और बाह्य दोनों जीवन एकदम बदल जाते हैं। वह सुकुमार राजपुत्र अपने हाथों केश का लुचन करता है और तमाम वैभवों को छोड़कर एकाकी जीवन और लघुता स्वीकार करता है। उसके साथ ही यावज्जीवन सामायिक चारित्र (आजीवन समभाव से रहने का नियम ) अंगीकार करता है और इसका सोलहों आने पालन करने के लिए भीषण प्रतिज्ञा करता है "चाहे दैविक, मानुषिक अथवा तिर्यक जातीय, किसी भी प्रकार की विघ्न-बाधाएं क्यों न आएँ, मैं सबको बिना किसी दूसरे की मदद लिए, समभाव से सहन करूँगा।" ___ इस प्रतिज्ञा से कुमार के वीरत्व और उसके परिपूर्ण निर्वाह से उसके महान् वीरत्व का परिचय मिलता है। इसी से वह साधक जीवन में 'महावीर' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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