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श्राध्यात्मिक विकास को इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योगभूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओं का बहुत रोचक वर्णन किया है।
आचार्य ने अन्त में चार प्रकार के योगियों का वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं, यह भी बतला दिया है। यही योगदृष्टिसमुच्चय की बहुत संक्षिप्त वस्तु है।
योगविंशिका में आध्यात्मिक विकास को प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन नहीं है, किन्तु उसको पुष्ट अवस्थामां का ही वर्णन है। इसी से उसमें मुख्यतया योग के अधिकारी त्यागी ही माने गए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में त्यागी गृहस्थ और साधुकी अावश्यक क्रिया को ही योगरूप बतला कर उसके द्वारा श्राध्यात्मिक विकास की क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है। और उस श्रावश्यक क्रिया के द्वारा योग को पाँच भूमिकाओं में विभाजित किया गया है। ये पाँच भूमिकाएँ उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नाम से प्रसिद्ध हैं। इन पाँच भूमिकाओं में कर्मयोग और ज्ञानयोग की घटना करते हुए प्राचार्य ने पहली दो भूमिकाओं को कर्मयोग कहा है। इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकाओं में इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूप से आध्यात्मिक विकास के तरतमभाव का प्रदर्शन कराया है। और उस प्रत्येक भूमिका तथा इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थिति का लक्षण वहुत स्पष्ट रूप से वर्णन किया है। इस प्रकार उक्त पाँच भूमिकाओं की अन्तर्गत भिन्न भिन्न स्थितियों का वर्णन करके योग के अस्सी भेद किए हैं। और उन सबके लक्षण बतलाए हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकास की किस सीड़ी पर खड़ा हूँ। यही योगविंशिका की संक्षिप्त वस्तु है । उपसंहार
विषय की गहराई और अपनी अपूर्णता का खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिए किया गया है कि अबतक का अवलोकन और स्मरण संक्षेप में भी लिपिबद्ध हो जाय, जिससे भविष्य में विशेष प्रगति करना हो तो इस विषय का प्रथम सोपान तैयार रहे । इस प्रवृत्ति में कई मित्र मेरे सहायक हुए है जिनके नामोल्लेख मात्र से कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदय में अखण्ड रहेगी।
१ देखो योगदृष्टिसमुच्चय २-१२ । २ योगविशिका गा० ५, ६ ।
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