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________________ २६५ साथ बौद्ध तथा योगदर्शन की परिभाषा का मिलान कर' के परिभाषाभेद की दिवार की तोड़कर उसकी अोट में छिपी हुई योगवस्तु की भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्ग की पाँच मूमिकायें हैं। इनमें से पहली चार को पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिका को असंप्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेप में योगबिंदु की वस्तु है। __योगदृष्टिसमुच्चय में अध्यात्मिक विकास के क्रमका वर्णन योगबिन्दु की अपेक्षा दूसरे ढंग से है। उसमें आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ के पहले की स्थितिको अर्थात् अचरमपुग्दलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्मा की स्थिति को अोवदृष्टि कहकर उसके तरतमभाव को अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है, और पीछे आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ से लेकर उसके अंत तक में पाई जानेवाली योगावस्था को योगदृष्टि कहा है। इस योगावस्था की क्रमिक वृद्धि को समझाने के लिये संक्षेप में उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है। वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थ में पाठ योगदृष्टि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन आठ दृष्टिों का विभाग पातंजलयोगदर्शनप्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि योगांगों के आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टि में एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टि याँ योग की प्रारम्भिक अवस्था रूप होने से उनमें अविद्या का अल्प अंश रहता है। जिसको प्रस्तुत में अवेद्यसंबेद्यपद कहा है"। अगली चार दृष्टिों में अविद्या का अंरा बिल्कुल नहीं रहता । इस भाव को प्राचार्य ने वेद्यसंवेद्यपद शब्द से बताया है। इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथ में पिछली चार दृष्टियों के सयय पाये जानेवाले विशिष्ट १ “यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ।। १७३ ॥ वरबोधिसमेतो वा तीर्थंकृयो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः" ॥ २७४ ॥-योगबिन्दु । २ देखो योगबिंदु ४२८, ४२० । ३ देखो-योगदृष्टिसमुच्चय १४ । ५ " , ७५ । ७३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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