SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ ही योग है । श्रतएव ज्ञान योग का कारण है । परन्तु योग के पूर्ववर्ती जो ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता ' है । और योग के बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्व होता है । इसीसे यह समझ लेना चाहिए कि स्पष्ट तथा परिपक्क ज्ञान की एकमात्र कुंजी योग ही है । आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जाति में जितने प्रमाण में पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जाति का विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी है । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवासिष्ठ की परिभाषा में ज्ञानबन्धु उ है । योग के सिवाय किसी भी मनुष्य की उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि मानसिक चंचलता के कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयों में टकराती हैं, और क्षीण होकर यों ही नष्ट हो जाती हैं। इसलिए क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियों को केन्द्रस्थ करने के लिए योग ही परम साधन है । व्यावहारिक और पारमार्थिक योग योग का कलेवर एकाग्रता है, और उसकी श्रात्मा श्रहंत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ हंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योग का उक्त श्रात्मा किसी भी प्रवृत्ति में- - चाहे वह दुनिया की दृष्टि में बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो- वर्तमान हो तो उसे पारमार्थिक योग ही - १ इसी अभिप्राय से गीता योगी को ज्ञानी से अधिक कहती है । गीता अ० ६. श्लोक ४६ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ! २ गीता श्र० ५ श्लोक ५ : यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ३ योगवासिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध सर्ग २१ब्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानबन्धुः स उच्यते ॥ आत्मज्ञानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टचेष्टं ते ते स्मृता ज्ञानबन्धवः ॥ इत्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy