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समझना चाहिए। इसके विपरीत स्थूल दृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योग का उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यावहारिक योग ही कहना चाहिए । यही बात गीता के साम्पगर्भित कर्मयोग में कही गई है। योग की दो धारायें___व्यवहार में किसी भी वस्तु को परिपूर्ण स्वरूप में तैयार करने के लिए पहले दो बातों की आवश्यकता होती है। जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है । चितेरे को चित्र तैयार करने से पहले उसके स्वरूप का, उसके साधनों का और साधनों के उपयोग का ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी मोक्ष के जिज्ञासु के लिए आत्माके बन्धमोक्ष, और बन्धमोक्ष के कारणों का तथा उनके परिहार-उपादान का ज्ञान होना जरूरी है। एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी
आवश्यक है। इसी से संक्षेप में यह कहा गया है कि 'ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्षः।' योग क्रियामार्ग का नाम है। इस मार्ग में प्रवृत्त होने से पहले अधिकारी,
आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयों का प्रारंभिक ज्ञान शास्त्र से, सत्संग से, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है। यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है। प्रवर्तक ज्ञान प्राथमिक दशा का ज्ञान होने से सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता। इसीसे योगमार्ग में तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूप में तात्त्विक भिन्नता न होने पर भी योगमार्ग के प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञान में कुछ भिन्नता अनिवार्य है । इस प्रवर्तक ज्ञान का मुख्य विषय श्रात्माका अस्तित्व है। आत्माका स्वतन्त्र अस्तित्व मानने वालोंमें भी मुख्य दो मत है-पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मवादी। नानात्मवादमें भी आत्मा की व्यापकता, अव्यापकता, परिणामिता, अपरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं। पर इन वादों को एक तरफ रख कर मुख्य जो आत्मा की एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्ग की दो धाराएँ हो गई हैं। अतएव योगविषयक साहित्य भी दो मार्गों में विभक्त हो जाता है। कुछ उपनिषदें', योगवासिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका श्रादि ग्रन्थ एकात्मवाद को लक्ष्य में रख कर रचे
१ योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा धनञ्जय !
सिद्धथसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उध्यते । अ० २ श्लोक ४८ । २ ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा, योगतत्त्व, इंस।
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