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कारण और कार्यलिङ्ग
कार्यलिङ्गक अनुमानको तो सभी मानते हैं पर कारणलिंगक अनुमान माननेमें मतभेद है । बौद्धतार्किक खासकर धर्मकीर्ति कहीं भी कारणलिंगक अनुमानका स्वीकार नहीं करते पर वैशेषिक, नैयायिक दोनों कारणलिंगक अनुमान को प्रथमसे ही मानते आए हैं। अपने पूर्ववर्ती सभी जैनतार्किकोंने जैसे कारणलिंगक अनुमानका बड़े जोरोंसे उपपादन किया है वैसे ही प्रा० हेमचन्द्र ने भी उसका उपपादन किया है। प्रा० हेमचन्द्र न्यायवादी शब्दसे धर्मकीर्तिको ही सूचित करते हैं। यद्यपि प्रा० हेमचन्द्र धर्मकीर्त्तिके मन्तव्यका निरसन करते हैं तथापि उनका धर्मकीर्तिके प्रति विशेष आदर है जो 'सूक्ष्मदर्शिनापि' इस शब्द से व्यक्त होता है-प्र० मी० पृ० ४२।।
कार्यलिंगक अनुमानके मानने में किसीका मतभेद नहीं फिर भी उसके किसीकिसी उदाहरणमें मतभेद खासा है । 'जीवत् शरीरं सात्मकम्, प्राणादिमत्वात् इस अनुमानको बौद्ध सदनुमान नहीं मानते, वे उसे मिथ्यानुमान मानकर हेत्वाभासमें प्राणादिहेतुको गिनाते हैं ( न्यायबि० ३.६६)। बौद्ध लोग इतर दार्शनिकोंकी तरह शरीरमें वर्तमान नित्य आत्मतत्त्वको नहीं मानते इसीसे वे अन्य दार्शनिकसम्मत सात्मकत्वका प्राणादि द्वारा अनुमान नहीं मानते, जबकि वैशेषिक, नैयायिक, जैन आदि सभी पृथगात्मवादी दर्शन प्राणादि द्वारा शरीर में आत्मसिद्धि मानकर उसे सदनुमान ही मानते हैं । अतएव अात्मवादी दार्शनिकोंके लिए यह सिद्धान्त श्रावश्यक है कि सपक्षवृत्तित्व रूप अन्वयको सद्हेतु का अनिवार्य रूप न मानना । केवल व्यतिरेकवाले अर्थात् अन्वयशून्य लिंगको भी वे अनमितिप्रयोजक मानकर प्राणादिहेतुको सद्हेतु मानते हैं । इसका समर्थन नैयायिकों की तरह जैनतार्किकोंने बड़े विस्तारसे किया है।
श्रा० हेमचन्द्र भी उसीका अनुसरण करते हैं, और कहते हैं कि अन्वयके अभावमें भी हेत्वाभास नहीं होता इसलिए अन्वयको हेतुका रूप मानना न चाहिए। बौद्धसम्मत खासकर धर्मकीर्तिनिर्दिष्ट अन्वयसन्देहका अनैकान्तिक
१ 'केवलव्यतिरेकिणं त्वीदृशमात्मादिप्रसाधने परममस्त्रमुपेक्षितुं न शक्नुम इत्ययथाभाष्यमपि व्याख्यानं श्रेयः ।'-न्याम० पृ० ५७८ । तात्पर्य० पृ० २८३ । कन्दली पृ० २०४ ।
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