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________________ १६१ प्रयोजकत्वरूपसे खण्डन करते हुए श्रा० हेमचन्द्र कहते हैं कि व्यतिरेकाभावमात्र को ही विरुद्ध और अनैकान्तिक दोनोंका प्रयोजक मानना चाहिए। धर्मकीर्तिने न्यायबिन्दुमें व्यतिरेकाभावके साथ अन्वयसन्देहको भी अनैकान्तिकताका प्रयोजक कहा है उसीका निषेध श्रा० हेमचन्द्र करते हैं। न्यायवादी धर्मकीर्तिके किसी उपलब्ध ग्रन्थमें, जैसा श्रा० हेमचन्द्र लिखते हैं, देखा नहीं जाता कि व्यतिरेकाभाव ही दोनों विरुद्ध और अनैकान्तिक या दोनों प्रकारके अनैकान्तिक का प्रयोजक हो । तब 'न्यायवादिनापि व्यतिरेकाभावादेव हेत्वाभासावुक्तो' यह श्रा० हेमचन्द्रका कथन असंगत हो जाता है। धर्मकीर्ति के किसी ग्रन्थमें इस प्रा० हेमचन्द्रोक्त भावका उल्लेख न मिले तो आ० हेमचन्द्रके इस कथनका अर्थ थोड़ी खींचातानी करके यही करना चाहिए कि न्यायवादीने भी दो हेत्वाभास कहे हैं पर उनका प्रयोजकरूप जेसा हम मानते हैं वैसा व्यतिरेकाभाव ही माना जाय क्योंकि उस अंशमैं किसीका विवाद नहीं अतएव निर्विवादरूपसे स्वीकृत व्यतिरेकामावको ही उक्त हेत्वाभासद्वयका प्रयोजक मानना, अन्वयसन्देहको नहीं। ___ यहाँ एक बात खास लिख देनी चाहिए । वह यह कि बौद्ध तार्किक हेतुके रूप्यका समर्थन करते हुए अन्वयको आवश्यक इसलिए बतलाते हैं कि वे विपक्षासत्त्वरूप व्यतिरेकका सम्भव 'सपक्ष एव सत्त्व' रूप अन्वयके बिना नहीं मानते । वे कहते हैं कि अन्वय होनेसे ही व्यतिरेक फलित होता है चाहे वह किसी वस्तुमें फलित हो या अवस्तुमें | अगर अन्वय न हो तो व्यतिरेक भी सम्भव नहीं | अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूप परस्पराश्रित होने पर भी बौद्ध तार्किकोंके मतसे भिन्न ही हैं । अतएव वे व्यतिरेक की तरह अन्वयके ऊपर भी समान ही भार देते हैं। जैनपरम्परा ऐसा नहीं मानती। उसके अनुसार विपक्षव्यावृत्तिरूप व्यतिरेक ही हेतुका मुख्य स्वरूप है। जैनपरम्पराके अनुसार उसी एक ही रूपके अन्वय या व्यतिरेक दो जुदे जुदे नाममात्र हैं। इसी सिद्धान्तका अनुसरण करके आ० हेमचन्द्रने अन्तमें कह दिया है कि 'सपक्ष एव सत्त्व' को अगर अन्वय कहते हो तब तो वह हमारा अभिप्रेत अन्यथानुपपत्तिरूप व्यतिरेक ही हुआ। सारांश यह है कि बौद्धतार्किक जिस तत्त्वको अन्वय और व्यतिरेक परस्पराश्रित रूपोंमें विभाजित करके दोनों ही रूपोंका हेतुलक्षणमें सभावेश करते हैं, जैनतार्किक उसी तत्त्वको एकमात्र अन्यथानुपपत्ति या व्यतिरेकरूपसे स्वीकार करके उसकी दूसरी भावात्मक बाजूको लक्ष्यमें नहीं लेते । १ 'अनयोरेव द्वयों रूपयोः सन्देहेऽनैकान्तिकः ।'-न्यायबि० ३.६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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