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________________ १८१ त्रिविधलिंग निर्दिष्ट है' । पर विद्यानन्दने उसमें अभूत अभूतका-यह एक प्रकार बढ़ाकर चार प्रकारोंके अन्तर्गत सभी विधिनिषेधसाधक उपलब्धियों तथा सभी विधिनिषेधसाधक अनुपलब्धियों का समावेश किया है (प्रमाणप० पृ० ७२-७४)। इस विस्तृत समावेशकरणमें किन्हीं पूर्वाचार्यों की संग्रहकारिकाओंकार उद्धृत करके उन्होंने सब प्रकारोंकी सब संख्याअोंको निर्दिष्ट किया है मानो विद्यानन्दके वर्गीकरणमें वैशेषिक सूत्रके अलावा अकलङ्क या माणिक्यनन्दी जैसे किसी जैनतार्किकका या किसी बौद्ध तार्किकका अाधार है। देवसूरिने अपने वर्गीकरण में परीक्षामुखके वर्गीकरणको ही आधार माना हुअा जान पड़ता है फिर भी देवसूरिने इतना सुधार अवश्य किया है कि जब परीक्षामुख विधिसाधक छ: उपलब्धियों (३.५६) और तीन अनुपलब्धियों (३.८६) को वर्णित करते हैं तब प्रमाणनयतत्त्वालोक विधिसाधक छ: उपलब्धियों (३.६४) का और पाँच अनुपलब्धियों (३.६६) का वर्णन करता. है ।. निषेधसाधकरूपसे छः उपलब्धियों (३. ७१ ) का और सात अनुपलब्धियों (३.७८) का वर्णन परीक्षामुखमें है तब प्रमाणनयतत्त्वालोकमें निषेधसाधक अनपलब्धि ( ३.६० ) और उपलब्धि ( ३. ७६ ) दोनों सात-सात प्रकार की हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र वैशेषिकसूत्र और न्यायबिन्दु दोनोंके आधार पर विद्यानन्दकी तरह वर्गीकरण करते हैं फिर भी विद्यानन्दसे विभिन्नता यह है कि श्रा० हेमचन्द्रके वर्गीकरणमें कोई भी अनुपलब्धि विधिसाधक रूपसे वर्णित नहीं है किन्तु न्यायबिन्दुकी तरह मात्र निषेधसाधकरूपसे वर्णित है। वर्गीकरणकी अनेकविधता तथा भेदोंकी संख्या न्यूनाधिकता होने पर भी तत्त्वतः सभी वर्गीकरणोंका सार एक ही है। वाचस्पति मिश्रने केवल बौद्धसम्मत वर्गीकरणका ही नहीं बल्कि वैशेषिकसूत्रगत वर्गीकरणका भी निरास किया है ( तात्पर्य० पृ० १५८-१६४ )। १ 'विरोध्यभूतं भूतस्य। भूतमभूतस्य । भूतो भूतस्य'-वै०सू० ३. ११-१३। २ 'अत्र संग्रहश्लोकाः-स्यात्कार्य कारणव्याप्यं प्राक्सहोत्तरचारि च | लिङ्ग तल्लक्षणव्याप्तेर्भूतं भूतस्य साधकं ॥ षोढा विरुद्धकार्यादि साक्षादेवोपवर्णितम् । लिङ्ग भूतमभूतस्य लिंगलक्षणयोगतः । पारम्पर्यात्तु कार्य स्यात् कारणं व्याप्यमेव च । सहचारि च निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्विधम् ।। कारणाद् द्विष्ठकार्यादिभेदेनोदाहृतं पुरा। यथा षोडशभेदं स्यात् द्वाविंशतिविधं ततः ।। लिङ्ग समुदितं शेयमन्यथानुपपत्तिमत् । तथा भूतमभूतस्याप्यूह्यमन्यदपीदृशम् ॥ अभूतं भूतमुन्नीतं भूतस्यानेकधा बुधैः । तथाऽभूतमभूतस्य यथायोग्यमुदाहरेत् ॥ बहुधाप्येवमाख्यातं संक्षेपेण चतुर्विधम् । अतिसंक्षेपतो द्वेधोपलम्भानुपलम्भभृत् ॥' -प्रमाणप० पृ० ७४-७५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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