SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेतु के प्रकार जैन तर्कपरम्परामें हेतुके प्रकारोंका वर्णन तो अकलङ्कके ग्रन्थों (प्रमाणसं० पृ० ६७-६८ ) में देखा जाता है पर उनका विधि या निषेधसाधक रूपसे स्पष्ट वर्गीकरण हम माणिक्यनन्दी. विद्यानन्द आदिके ग्रन्थोंमें ही पाते हैं। माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द, देवसूरि और श्रा० हेमचन्द्र इन चारका किया हुआ ही वह वर्गीकरण ध्यान देने योग्य है । हेतुप्रकारोंके जैनग्रन्थगत वर्गीकरण मुख्यतया वैशेषिक सूत्र और धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दु पर अवलम्बित हैं। वैशेषिकसूत्र (६.२.१) में कार्य, कारण, संयोगी, समवायी और विरोधी रूपसे पञ्चविध लिंगका स्पष्ट निर्देश है। न्यायबिन्दु (२.१२) में स्वभाव, कार्य और अनपलम्भ रूपसे त्रिविध लिंगका वर्णन है तथा अनुपलब्धिके ग्यारह प्रकार' मात्र निषेधसाधक रूपसे वर्णित हैं, विधिसाधक रूपसे एक भी अनुपलब्धि नहीं बतलाई गई है। अकलङ्क और माणिक्यनन्दीने न्यायबिन्दुकी अनुपलब्धि तो खीकृत की पर उसमें बहुत कुछ सुधार और वृद्धि की। धर्मकीर्ति अनुलब्धि शब्दसे सभी अनुपलब्धियोंको या उपलब्धियोंको लेकर एकमात्र प्रतिषेधकी सिद्धि बतलाते हैं तब माणिक्यनन्दी अनपलब्धिसे विधि और निषेध उभयकी सिद्धिका निरूपण करते हैं इतना ही नहीं बल्कि उपलब्धिको भी वे विधिनिषेध उभयसाधक बतलाते हैं । विद्यानन्दका वर्गीकरण वैशेषिकसूत्रके आधार पर है । वैशेषिकसूत्र में अभूत भूतका, भूत अभूतका और भूत-भूतका इस तरह १ 'स्वभावानुपलब्धिर्यथा नाऽत्र धूम उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति । कार्यानपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूमकारणानि सन्ति धूमाभावात् । व्यापकानलब्धिर्यथा नात्र शिंशपा वृक्षाभावात् । स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेरिति । विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्टी धूमादिति । विरुद्धव्याप्तोलब्धिर्यथा न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशो हेत्वन्तरापेक्षणात् । कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति अग्नेरिति । व्यापकविरुद्धोलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शोऽग्नेरिति | कारणानपलब्धिर्यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावात् । कारण विरुद्धोपलब्धिर्यथा नास्य रोमहर्षादिविशेषाः सन्निहितदहनविशेषत्वादिति । कारणविरुद्धार्योपलब्धिर्यथा न रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषवानयं प्रदेशो धूमादिति ॥'-न्यायबि० २. ३२-४२ । २ परी० ३.५७-५६, ७८, ८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy