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________________ द्वारा धर्मज्ञ भी नहीं थे । बुद्ध, महावीर श्रादिमें सर्वशत्वनिषेधकी एक अचल युक्ति कुमारिलने यह दी है कि परस्परविरुद्धभाषी बुद्ध, महावीर, कपिल श्रादि मेंसे किसे सर्वज्ञ माना जाय और किसे न माना जाय ? अतएव उनमेंसे कोई सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि वे सर्वज्ञ होते तो सभी वेदवत् अविरुद्धभाषी होते, इत्यादि । शान्तरक्षितने कुमारिल तथा अन्य सामट, यशट श्रादि मीमांसकोंकी दलीलोंका बड़ी सूक्ष्मतासे सविस्तर खण्डन ( तत्त्वसं० का० ३२६३ से) करते हुए कहा है कि-वेद स्वयं ही भ्रान्त एवं हिंसादि दोषयुक्त होनेसे धर्मविधायक हो नहीं सकता। फिर उसका आश्रय लेकर उपदेश देनेमें क्या विशेषता है? बुद्ध ने स्वयं ही स्वानुभवसे अनुकम्पाप्रेरित होकर अभ्युदय निःश्रेयस्साधक धर्म बतलाया है । मूर्ख शूदू आदि को उपदेश देकर तो उसने अपनी करुणावृत्ति के द्वारा धार्मिकता ही प्रकट की है। वह मीमांसकों से पूछता है कि जिन्हें तुम ब्राह्मण कहते हो उनकी ब्राह्मणताका निश्चित प्रमाण क्या है ? । अतीतकाल बड़ा लम्बा है, स्त्रियोंका मन भी चपल है, इस दशामें कौन कह सकता है कि ब्राह्मण कहलानेवाली सन्तानके माता-पिता शुद्ध ही रहे हों और , कभी किसी विजातीयताका मिश्रण हुश्रा न हो। शान्तरक्षित ने यह भी कह दिया कि सच्चे ब्राह्मण और श्रमण बुद्ध शासनके सिवाय अन्य किसी धर्ममें नहीं हैं (का० ३५८६-६२) । अन्तमें शान्तरक्षितने महिले सामान्यरूपसे सर्वज्ञत्वका सम्भव सिद्ध किया है, फिर उसे महावीर, कपिल आदिमें असम्भव १. 'सर्वशेषु च भूयःसु विरुद्धार्थोपदेशिषु । तुल्यहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ।। सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा । अथोभावपि सर्वशी मतभेदः तयोः कथम् ॥'-तत्त्वसं. का. ३१४८-४६ ॥ २. 'करुणापरतन्त्रास्तु स्पष्टतत्त्वनिदर्शिनः । सर्वापवादनिःशकारचक्रुः सर्वत्र देशनाम् ॥ यथा यथा च मौदिदोषदुष्टो भवेजनः। तथा तथव नाथानां दया तेषु प्रवर्तते ॥'-तस्वसं० का० ३५७१-२ । ३. 'अतितश्च महान् कालो योषितां चातिचापलम् । तद्भवत्यपि निश्चेतु ब्राह्मणत्वं न शक्यते ॥ अतीन्द्रियपदार्थज्ञो नहि कश्चित् समस्ति वः। तदन्वयविशुद्धिं च नित्यो वेदोपि नोक्तवान् ॥'-तत्वसं० का० ३५७६-८० ।। ... ४. 'ये च वाहितपापत्वाद् ब्राह्मणाः पारमार्थिकाः । अभ्यस्तामलनेरात्म्यास्ते मुनेरेव शासने ॥ इहैव श्रमणस्तेन चतुर्द्धा परिकीर्त्यते । शून्याः परप्रवादा हि भ्रमणैब्राह्मणैस्तथा ॥'-तत्त्वसं. का. ३५८९.६.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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