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________________ सब वस्तु साक्षात् जान सके पर धर्माधर्मको वेदनिरपेक्ष होकर कोई साक्षात् नहीं जान सकता , चाहे वह जाननेवाला बुद्ध, जिन श्रादि जैसा मनुष्य योगी हो, चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु आदि जैसा देव हो, चाहे वह कपिल, प्रजापति आदि जैसा ऋषि या अवतारी हो । कुमारिल का कहना है कि सर्वत्र सर्वदा धर्ममर्यादा एक सी है, जो सदा सर्वत्र एकरूप वेद द्वारा विहित माननेपर ही सङ्गत हो सकती है। बुद्ध आदि व्यक्तियोंको धर्मके साचात् प्रतिपादक माननेपर वैसी मर्यादा सिद्ध हो नहीं सकती क्योंकि बुद्ध श्रादि उपदेशक कभी निर्वाण पानेपर नहीं भी रहते । जीवितदशामें भी वे सब क्षेत्रोंमें पहुँच नहीं सकते । सब धर्मोपदेशकोंकी एकवाक्यता भी सम्भव नहीं। इस तरह कुमारिल साक्षात् धर्मज्ञत्वका निशेध करके फिर सर्वज्ञत्वका भी सबमें निषेध करते हैं। वह पुराणोक्त ब्रह्मादि देवों के सर्वशत्वका अर्थ भी, जैसा उपनिषदोंमें देखा जाता है, केवल श्रात्मज्ञान परक करते हैं। बुद्ध, महाबीर आदिके बारेमें कुमारिल का यह भी कथन है कि वे वेदज्ञ ब्राह्मणजातिको धर्मोपदेश न करने और वेदविहीन मूर्ख शूद्र श्रादिको धर्मोपदेश करने के कारण वेदाभ्यासी एवं वेद - १. 'नहि अतीन्द्रियार्थे वचनमन्तरेण अवगतिः सम्भवति, तदिदमुक्तम्अशक्यं हि तत् पुरुषेण ज्ञातुमृते वचनात्'-शाबरभा० १. १. २ । श्लोक न्याय. पृ० ७६ । २. 'कुड्यादिनिःसृतवाच्च नाश्वासो देशनासु नः । किन्नु बुद्धप्रणीताः स्युः किमु कैश्चिद् दुरात्मभिः। अदृश्यैः विप्रलम्भार्थ पिशाचादिभिरीरिताः । एवं यैः केवलं ज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ॥'-श्लोकवा० सू० २. श्लो० १३६-४१ । 'यत्तु वेदवादिभिरेव कैश्चिदुक्तम्-नित्य एवाऽयं वेदः प्रजापतेः प्रथममार्षशानेनावबुद्धो भवतीति तदपि सर्वज्ञवदेव निराकार्यमित्याह-नित्येति'-श्लो० न्याय० सू० २. १४३ । "अथापि वेददेहत्वात् ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। सर्वज्ञानमयाद्वेदात्सावश्यं मानुषस्य किम् ॥'-तत्त्वसं० का० ३२०८, ३२१३-१४ । ३. 'ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यमिति योपि दशाव्ययः । शङ्करः श्रूयते सोऽपि ज्ञानवानात्मवित्तया ॥'-तत्वसं० का० ३२०६ । ४. 'शाक्यादिवचनानि तु कतिपयदमदानादिवचनवर्ज सर्वाण्येव समस्तचतुर्दशविद्यास्थानविरुद्धानि त्रयीमार्गव्युस्थितविरुद्धाचरणैश्च बुद्धादिभिः प्रणीतानि । त्रयीबाह्येभ्यश्चतुर्थवर्णनिरवसितप्रायेभ्यो व्यामूढेभ्यः समर्पितानीति न वेदमूलत्वेन संभाव्यन्ते ।' तन्त्रवा० पृ० ११६ । तत्त्वसं० का० ३२२६-२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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