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बतलाकर केवल बुद्धमें ही सिद्ध किया है । इस विचारसरणी में शान्तरक्षित की मुख्य युक्ति यह है कि चित्त स्वयं ही प्रभास्वर अतएव स्वभावसे प्रज्ञाशील हैं । क्लेशावरण, ज्ञेयावरण आदि मल श्रागन्तुक हैं । नैरात्म्यदर्शन जो एक मात्र सत्यज्ञान है, उसके द्वारा श्रावरणोंका क्षय होकर भावनाबलसे अन्त में स्थायी सर्वज्ञताका लाभ होता है । ऐकान्तिक क्षणिकत्वज्ञान, नैरात्म्यदर्शन श्रादिका अनेकान्तोपदेशी ऋषभ, वर्द्धमानादिमें तथा श्रात्मोपदेशक कपिलादिमें सम्भव नहीं तव उनमें श्रावरणचय द्वारा सर्वज्ञत्वका भी सम्भव नहीं । इस तरह सामान्य सर्वज्ञत्वकी सिद्धिके द्वारा अन्तमें अन्य तीर्थङ्करोंमें सर्वज्ञत्वका सम्भव बतलाकर केवल सुगत में ही उसका अस्तित्व सिद्ध किया है और उसीके शास्त्रको ग्राह्य बतलाया है ।
शान्तरक्षितकी तरह प्रत्येक सांख्य या जैन श्राचार्यका भी यही प्रयत्न रहा है कि सर्वज्ञस्वका सम्भव अवश्य है पर वे सभी अपने-अपने तीर्थङ्करों में ही सर्वशत्व स्थापित करते हुए अन्य तीर्थकरोंमें उसका नितान्त असम्भव बतलाते हैं ।
जैन श्राचार्योंकी भी यही दलील रही है कि अनेकान्त सिद्धान्त ही सत्य है । उसके यथावत् दर्शन और आचरण के द्वारा ही सर्वज्ञस्व लभ्य है । अने कान्तका साक्षात्कार व उपदेश पूर्णरूप से ऋषभ, वर्द्धमान दिने ही किया श्रतएव वे ही सर्वज्ञ और उनके उपदिष्ट शास्त्र ही निर्दोष व ग्राह्य हैं । सिद्धसेन हों या समन्तभद्र, अकलङ्क हों या हेमचन्द्र सभी जैनाचार्योंने सर्वज्ञसिद्धि के प्रसङ्गमें वैसा ही युक्तिवाद अवलम्बित किया है जैसा बौद्ध सांख्यादि श्राचार्यों
१. ' प्रत्यक्षीकृत नैरात्म्ये न दोषो लभते स्थितिम् । तद्विरुद्धतया दीप्ते प्रदीपे तिमिरं यथा ॥ ' - तत्त्वसं० का० ३३३८ । ' एवं क्लेशावरणप्रहाणं प्रसाध्य ज्ञेयावरणप्रहाणं प्रतिपादयन्नाह - साक्षा कृतिविशेषादिति - साक्षात्कृतिविशेषाच्च दोषो नास्ति सवासन: । सर्वज्ञत्वमतः सिद्धं सर्वावरणमुक्तितः ॥ - तत्त्वसं० का० ३३३६ | 'प्रभास्वरमिदं चित्तं तत्त्वदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थितं यस्मात् मलास्वागन्तवो मताः । ' - तत्त्वसं ० का ० ३४३५ । प्रमाणवा० ३, २०८ |
२. 'इदं च वर्द्धमानादेर्नैरात्म्यज्ञानमीदृशम् । न समस्यात्मदृष्टौ हि विनष्टाः सर्वतीर्थिकाः ॥ स्याद्वादाक्षणिकस्या (स्वा) दि प्रत्यक्षादिप्रवो (बा) धितम् । बहेवायुक्तमुक्तं यैः स्युः सर्वज्ञाः कथं नु ते ॥ ' - तस्वसं• ३३२५-२६ ।
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