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________________ १२७ नियम नहीं कि सभी योगियोंको वैसा सामर्थ्य अवश्य प्राप्त हो। इस मतमें जैसे मोतके वास्ते सर्वज्ञत्वप्राप्ति अनिवार्य शर्त नहीं है वैसे यह भी सिद्धान्त' है कि मोक्षप्राप्तिके बाद सर्वज्ञ योगियोंकी श्रात्मामें भी पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता, क्योंकि वह ज्ञान ईश्वरज्ञानकी तरह नित्य नहीं पर योगजन्य होनेसे अनित्य है। सख्य, योग और वेदान्त दर्शनसम्मत सर्वज्ञत्वका स्वरूप वैसा ही है जैसा न्यायवैशेषिकसम्मत सर्वज्ञत्वका । यद्यपि योगदर्शन न्याय वैशेषिककी तरह ईश्वर मानता है यथापि वह न्याय-वैशेषिककी तरह चेतन अात्मामें सर्वज्ञखका समर्थन न कर सकनेके कारण विशिष्ट बुद्धितव में ही ईश्वरीय सर्वशस्वका समर्थन कर पाता है । सांख्य, योग और वेदान्तमें बौद्धिक सर्वशत्वकी प्राप्ति भी मोचके वास्ते अनिवार्य वस्तु नहीं है, जैसा कि जैन दर्शनमें माना जाता है। किन्तु न्यायवैशेषिक दर्शनकी तरह वह एक योगविभूति मात्र होनेसे किसी-किसी साधकको होती है। सर्वशवादसे संबन्ध रखनेवाले हजारों वर्षके भारतीय दर्शन शास्त्र देखनेपर भी यह पता स्पष्टरूपसे नहीं चलता कि अमुक दर्शन ही सर्वज्ञवादका प्रस्थापक है। यह भी निश्चयरूपसे कहना कठिन है कि सर्वज्ञत्वकी चर्चा शुद्ध तत्व चिन्तनमेंसे फलित हुई है, या साम्प्रदायिक भावसे धार्मिक खण्डन-मण्डनमें से फलित हुई है ? यह भी सप्रमाण बतलाना सम्भव नहीं कि ईश्वर, ब्रह्मा आदि दिव्य अात्मात्रोंमें माने जानेवाले सर्वज्ञत्वके विचारसे मानुषिक सर्वज्ञत्वका विचार प्रस्तुत हुअा, या बुद्ध-महावीरसदृश मनुष्यमें माने जानेवाले सर्वज्ञस्वके १. 'तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोऽ. पवर्गः प्रकीर्तितः ॥' -न्यायम० पृ० ५०८ । २. 'तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥' -योगसू० ३.५४ । ३. 'निर्धूतरजस्तमोमलस्य बुद्धि सत्त्वस्य परे वैशारद्ये परस्यां वशीकारसंज्ञायां वर्तमानस्य सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्ररूपप्रतिष्ठस्य....सर्वज्ञातृत्वम् , सर्वात्मनां गुणानां शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन व्यवस्थितानामक्रमोपारूढं विवेकजं ज्ञानमित्यर्थः। -योगभा० ३. ४६ । ४. 'प्राप्तविवेकजज्ञानस्य अप्राप्तविवेकजज्ञानस्य वा सस्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।' योगसू० ३. ५५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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