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वेद-निरपेक्ष साक्षात् धर्मश या सर्वज्ञके अस्तित्वका विरोध किया है । वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थ जाननेवालेका निषेध नहीं किया । ___ बौद्ध और जैन दर्शनसम्मत साक्षात् धर्मज्ञवाद या साक्षात् सर्वज्ञवादसे वेदके अपौरुषेयत्वका केवल निरास ही अभिप्रेत नहीं है बल्कि उसके द्वारा वेदोंमें अप्रामाण्य बतलाकर वेदभिन्न भागमोंका प्रामाण्य स्थापित करना भी अभिप्रेत है। इसके विरुद्ध जो न्याय-वैशेषिक श्रादि वैदिक दर्शन सर्वज्ञवादी हैं उनका तात्पर्य सर्वज्ञवादके द्वारा वेदके अपौरुषेयत्ववादका निरास करना अवश्य है, पर साथ ही उसी वादके द्वारा वेदका पौरुषेयस्व बतलाकर उसीका प्रामाण्यस्थापन करना भी है। ___ न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वरके ज्ञानको नित्य-उत्पादविनाशरहित और पूर्ण-त्रैकालिक सूक्ष्म-स्थूल समन भावोंको युगपत् जानने. वाला-मानकर तद्द्वारा उसे सर्वज्ञ मानते हैं। ईश्वरभिन्न प्रात्माओंमें वे सर्वशत्व मानते हैं सही, पर सभी अात्माओंमें नहीं किन्तु योगी अात्माओंमें । योगियों में भी सभी योगियोंको वे सर्वज्ञ नहीं मानते किन्तु जिन्होंने योग द्वारा वैसा सामर्थ्य प्राप्त किया हो सिर्फ उन्हींको । न्याय-वैशेषिक मतानुसार यह
संश्रितः ॥ यदि षड्भिः प्रमाणौः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ॥ नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।' श्लोकवा. चोद० श्लो० ११०-२। 'धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥' -तत्वसं० का० ३१२८ । यह श्लोक तत्त्वसंग्रह में कुमारिलका कहा गया है। -पृ.८४४।।
१. 'न च बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद्विरोधः । दृष्टा हि गुणानामाश्रयभेदेन द्वयी गतिः नित्यता अनित्यता च तथा बुद्ध्यादीनामपि भविष्यतीति । -कन्दली पृ०६०। 'एतादृशानुमितौ लाघवज्ञानसहकारेण ज्ञानेच्छाकृतिषु नित्यत्वमेकत्वं च भासते इति नित्यैकत्वसिद्धिः ।' -दिनकरी पृ. २६ ।
२. वै. सू०६. १. ११-१३ । 'अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसन्निकर्षाद्योगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते ।' -प्रश० पृ० १८७ । वै० सू०६. १. ११-१३ ।
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