SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञवाद लोक और शास्त्रमें सर्वज्ञ शब्दका उपयोग, योगसिद्ध विशिष्ट श्रतीन्द्रिय ज्ञानके सम्भवमें विद्वानों और साधारण लोगों की श्रद्धा, जुदे जुदे दार्शनिकों के द्वारा अपने-अपने मन्तव्यानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट ज्ञानरूप अर्थ में सर्वज्ञ जैसे पदोंको लागू करनेका प्रयत्न और सर्वज्ञरूप से माने जानेवाले किसी व्यक्तिके द्वारा ही मुख्यतया उपदेश किये गए धर्म या सिद्धान्तकी अनुगामियों में वास्तविक प्रतिष्ठा — इतनी बातें भगवान महावीर और बुद्ध के पहिले भी थींइसके प्रमाण मौजूद हैं । भगवान् महावीर और बुद्ध के समय से लेकर आजतक के करीब ढाई हजार वर्ष के भारतीय साहित्य में तो सर्वज्ञत्व के अस्ति नास्तिपक्षों की, उसके विविध स्वरूप तथा समर्थक और विरोधी युक्तिवादोंकी, क्रमशः विकसित सूक्ष्म और सूक्ष्मतर स्पष्ट एवं मनोरंजक चर्चाएँ पाई जाती हैं । सर्वज्ञत्व के नास्तिपक्षकार मुख्यतया तीन हैं— चार्वाक, अज्ञानवादी और पूर्वमीमांसक | उसके स्तिपक्षकार तो अनेक दर्शन हैं, जिनमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन मुख्य हैं । चार्वाक इन्द्रियगम्य भौतिक लोकमात्र को मानता है इसलिये उसके मत में अतीन्द्रिय आत्मा तथा उसकी शक्तिरूप सर्वज्ञत्व ग्राहिके लिये कोई स्थान ही नहीं है । अज्ञानवादीका अभिप्राय आधुनिक वैज्ञानिकों की तरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञानकी भी एक अन्तिम सीमा होती है । ज्ञान. कितना ही उच्च कक्षाका क्यों न हो पर वह त्रैकालिक सभी स्थूल सूक्ष्म भावोंको पूर्ण रूपसे जाननेमें स्वभावसे ही असमर्थ है । अर्थात् अन्तमें कुछ न कुछ अज्ञेय रह ही जाता है । क्योंकि ज्ञानकी शक्ति ही स्वभावसे परिमित है । वेदवादी पूर्वमीमांसक श्रात्मा, पुनर्जन्म, परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थ मानता है । किसी प्रकारका अतीन्द्रिय ज्ञान होनेमें भी उसे कोई आपत्ति नहीं फिर भी वह पौरुषेयवेदवादी होने के कारण वेदके अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भा प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञानको मान नहीं सकता । इसी एकमात्र अभिप्रायसे उसने १. 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितुम्, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्' १. १.२ । 'नानेन वचनेनेह सर्वज्ञत्वनिराक्रिया । वचनादृत इत्येवमपवादो हि - शाबरभा• Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy