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________________ १२४ 'स्वतः' तो कोई 'परत:' अनियमसे है। अभ्यासदशामें तो 'स्वत:' समझना चाहिए चाहे प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य । पर अनभ्यास दशामें 'परतः' समझना चाहिए। जैनपरम्परा ठीक शान्तरदितकथित बौद्धपक्षके समान ही है। वह प्रामाण्यअप्रामाण्य दोनोंको अभ्यासदशामें 'स्वतः' और अनभ्यासदशामें 'परतः' मानती है । यह मन्तव्य प्रमाणन यतत्त्वालोकके सूत्र में ही स्पष्टतया निर्दिष्ट है । यद्यपि प्रा० हेमचन्द्र ने अपने सूत्र में प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनोंका निर्देश न करके परीक्षामुखकी तरह केवल प्रामाण्यके स्वतः-परतःका ही निर्देश किया है तथापि देवसूरिका सूत्र पूर्णतया जैन परम्पराका द्योतक है। जैसे- 'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्चेति ।' -परी० १. १३. । 'तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति' -प्रमाणन० १.२१ । इस स्वतः-परतःकी चर्चा क्रमशः यहाँ तक विकसित हुई है. कि इसमें उत्पत्ति, शप्ति और प्रवृत्ति तीनोंको लेकर स्वतः परतःका विचार बड़े विस्तारसे. सभी दर्शनोंमें श्रा गया है और यह विचार प्रत्येक दर्शनकी अनिवार्य चर्चाका विषय बन गया है । और इसपर परिष्कारपूर्ण तत्वचिन्तामणि, गादाधरप्रामाएयवाद आदि जैसे जटिल ग्रन्थ बन गये हैं। ई. १६३६ ] [प्रमाण मीमांसा १. 'नहि बौद्धैरेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टोऽनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि-उभयमप्येतत् किश्चित् स्वतः किञ्चित् परतः इति पूर्वमुपवर्णितम् । अत एवं पक्षचतुष्टयोपन्यासोऽप्ययुक्तः । पञ्चमस्याप्यनियमपक्षस्य सम्भवात् ।' -तत्त्वसं० ५० का० ३१२३ । २. प्रमेयक० पृ० १४६ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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