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________________ १२३ मीमांसक ईश्वरवादी न होनेसे वह तन्मूलक प्रामाण्य तो वेदमें कह ही नहीं सकता था । श्रतएव उसने वेदप्रामाण्य 'स्वतः' मान लिया और उसके समर्थनके वास्ते प्रत्यक्ष श्रादि सभी ज्ञानोंका प्रामाण्य 'स्वतः' ही स्थापित किया। पर उसने अप्रामाण्य को तो 'परतः' ही माना है । यद्यपि इस चर्चामें सांख्यदर्शनका क्या मन्तव्य है इसका कोई उल्लेख उसके उपलब्ध ग्रन्थों में नहीं मिलता; फिर भी कुमारिल, शान्तरक्षित और माधवाचार्यके कथनोंसे जान पड़ता है कि सांख्यदर्शन प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनोंको 'स्वतः' ही माननेवाला रहा है। शायद उसका तद्विषयक प्राचीन-साहित्य नष्टप्राय हुश्रा हो । उक्त आचार्यों के ग्रन्थोंमें ही एक ऐसे पक्षका भी निर्देश है जो ठीक मीमांसकसे उलटा है अर्थात् वह अप्रामाण्यको 'स्वतः' ही और प्रामाण्यको 'परतः' ही मानता है। सर्वदर्शन-संग्रहमें-सौगताश्चरमं स्वतः (सर्वद. पृ० २७६) इस पक्षको बौद्धपक्ष रूपसे वर्णित किया है सही, पर तस्वसंग्रहमें जो बौद्ध पक्ष है वह बिलकुल जुदा है। सम्भव है सर्वदर्शनसंग्रहनिर्दिष्ट बौद्धपक्ष किसी अन्य बौद्ध विशेषका रहा हो । शान्तरक्षितने अपने बौद्ध मन्तव्यको स्पष्ट करते हुए कहा है कि १प्रामाण्य-अप्रामाण्य उभय 'स्वतः', २-उभय 'परतः', ३-दोनोंमेंसे प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परतः तथा ४–अप्रामाण्य स्वतः, प्रामाण्य परतः इन चार पक्षोंमेंसे कोई भी बौद्ध पक्ष नहीं है क्योंकि वे चारों पक्ष नियमवाले हैं। बौद्धपक्ष अनियमवादी है अर्थात् प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य दोनोंमें कोई एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः । ................स्थितमेतदर्थक्रियाज्ञानात् प्रामाण्यनिश्चय इति । तदिदमुक्तम् । प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसाम ादर्थवत् प्रमाणमिति । तस्मादप्रामाण्यमपि परोक्षमित्यतो द्वयमपि परत इत्येष एष पक्षः श्रेयान् । -न्यायम० पृ० १६०-१७४ । कन्दली पृ. २१७-२२० । 'प्रमायाः परतन्त्रत्वात् सर्गप्रलयसम्भवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्वासान विधान्तर सम्भवः ॥' न्यायकु० २. ११ तत्त्वचि. प्रत्यक्ष. पृ. १८३-२३३ । १. 'स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन शक्यते ।।' -श्लोकवा. सू० २. श्लो० ४७ । २. श्लोकवा. सू. ३. श्लो० ८५ । ३. 'केचिदाहुयं स्वतः।' -श्लोकवा० सू० २. श्लो० ३४३ तत्त्वसं. प. का० २८११. 'प्रमाणत्वाप्रमाणरवे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।' -सर्वद. जैमि० पू० २७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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