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प्रामाण्य स्वतः या परतः
दर्शनशास्त्रों में प्रामाण्य और प्रामाण्यके 'स्वतः ' ' परतः ' की चर्चा बहुत प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टिसे जान पड़ता है कि इस चर्चाका मूल वेदोंके प्रामाएय मानने न माननेवाले दो पक्षों में है । जब जैन, बौद्ध श्रादि विद्वानोंने वेदके प्रामाण्यका विरोध किया तब वेदप्रामाण्यवादी न्याय-वैशेषिक-मीमांसक विद्वानोंने वेदोंके प्रामाण्यका समर्थन करना शुरू किया । प्रारम्भ में यह चर्चा 'शब्द' प्रमाण तक ही परिमित रही जान पड़ती है पर एक बार उसके तार्किक प्रदेशमें आने पर फिर वह व्यापक बन गई और सर्व ज्ञानके विषय में प्रामाण्य किंवा श्रप्रामाण्य के 'स्वतः ' 'परतः का विचार शुरू हो गया ।
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इस चर्चा में पहिले मुख्यतया दो पक्ष पड़ गए । एक तो वेद श्रप्रामाण्य वादी जैन-बौद्ध और दूसरा वेदप्रामाण्यवादी नैयायिक, मीमांसक श्रादि । वेदप्रामाण्यवादियोंमें भी उसका समर्थन भिन्न-भिन्न रीतिसे शुरू हुआ । ईश्वरवादी न्याय-वैशेषिक दर्शनने वेदका प्रामाण्य ईंश्वरमूलक स्थापित किया । जब उसमें वेदप्रामाण्य परतः स्थापित किया गया तब बाकीके प्रत्यक्ष आदि सब प्रमाणोंका प्रामाण्य भी 'परत: ' ही सिद्ध किया गया और समान युक्तिसे उसमें प्रामाण्यको भी 'परतः ' ही निश्चित किया । इस तरह प्रामाण्य - श्रप्रामाण्य दोनों परतः ही न्याय-वैशेषिक सम्मत २ हुए 1
१. 'श्रौत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत् प्रमाणं बादरायणस्यानपेचध्वात्' जैमि० सू० १. १. ५. 'तस्मात् तत् प्रमाणम् अनपेक्षत्वात् । न ह्येवं सति प्रत्ययान्तरमपेचितव्यम्, पुरुषान्तरं वापि स्वयं प्रत्ययो ह्यसौ ।' - शावरभा० १. १. ५. बृहती० १. १. ५. ' सर्व विज्ञान विषयमिदं तावत्प्रतीक्ष्यताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः किं परतोऽथवा ॥ ' -- श्लोकवा० चोद० श्लो० ३३.
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२. ' प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्शवत् प्रमाणम्' -न्यायभा० पृ० १ । तात्पर्य० १. १. १ । किं विज्ञानानां प्रामाण्यमप्रामाण्यं चेति द्वयमपि स्वतः, उत उभयमपि परतः होस्विदप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यं तु परतः, उतस्वित् प्रामाण्यं स्वतः श्रप्रामाण्यं तु परत इति । तत्र परत
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