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________________ १२८ विचार-आन्दोलनसे ईश्वर, ब्रह्मा आदिमें सर्वशत्वका समर्थन किया जाने लगा, या देव-मनुष्य उभयमें सर्वज्ञत्व माने जानेका विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूपसे प्रचलित हुश्रा ? यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूपसे इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायोंके खण्डन-मण्डनमेंसे फलित हुई है और पीछेसे उसने तत्त्वज्ञानका रूप धारण करके तात्त्विक चिन्तनमें भी स्थान पाया है । और वह तटस्थ तत्त्वचिन्तकोंका विचारणीय विषय बन गई है। क्योंकि मीमांसक जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शनके सर्वशत्व संबन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनोंके सर्वज्ञत्व संबन्धी स्वीकारका एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि वेदका प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य-सर्वज्ञत्ववादी दर्शनोंका एक यही उद्देश्य है कि परम्परासे माने जानेवाले वेदप्रामाण्यके स्थानमें इतर शास्त्रोंका प्रामाण्य स्थापित करना और वेदोंका अप्रामाण्य । जब कि वेदका प्रामाण्य-अप्रामाण्य ही असर्वज्ञवाद, देव-सर्वज्ञवाद और मनुष्य-सर्वशवादकी चर्चा और उसकी दलीलोंका एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदायको इस तत्वचर्चाका उत्थानबीज मानने में सन्देहको कम से कम अवकाश है। ____ मीमांसकधुरीण कुमारिलने धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंका निराकरण बड़े श्रावेश और युक्तिवादसे किया है ( मीमांसाश्लो० सू० २. श्लो० ११० से १४३ ) वैसे ही बौद्धप्रवर शान्तरक्षितने उसका जवाब उक्त दोनों वादोंके समर्थनके द्वारा बड़ी गम्भीरता और स्पष्टतासे दिया है । तत्त्वसं० पृ०८४६ से ) इसलिए यहाँपर एक ऐतिहासिक प्रश्न होता है कि क्या धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वाद अलग-अलग सम्प्रदायोंमें अपने-अपने युक्तिबलपर स्थिर होंगे, या किसी एक वादमेंसे दूसरे वादका जन्म हुअा है ? अभीतकके चिन्तनसे यह जान पड़ता है कि धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंकी परम्परा मूलमें अलग-अलग ही है । बौद्ध सम्प्रदाय धर्मवादकी परम्पराका अवलम्बी ख़ास रहा होगा क्योंकि खुद बुद्धने ( मज्झिम० चूल-मालुंक्यपुत्तसुत्त २.१) अपनेको सर्वज्ञ उसी अर्थमें कहा है जिस अर्थ में धर्मज्ञ या मार्गश शब्दका प्रयोग होता है। बुद्ध के वास्ते धर्मशास्ता, धर्मदेशक आदि विशेषण पिटकग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं। 'धर्मकीर्तिने बुद्धमें सर्वज्ञत्वको अनुपयोगी बताकर केवल धर्मज्ञत्व ही स्थापित किया है, जब १. 'हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु ।' -प्रमाणवा. २. ३२-३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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