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________________ ५४ दृष्टिको व्यापक बनाएँ और केवल संकुचित दृष्टिसे अपनी परम्पराका ही विचार न करें। - धर्म परम्पराअोंका पुराना इतिहास हमें यही सिखाता है । गणतन्त्र, राजतन्त्र ये सभी आपसमें लड़कर अन्तमें ऐसे धराशायी हो गए कि जिससे विदेशियोंको भारतपर शासन करनेका मौका मिला। गाँधीजीकी अहिंसादृष्टिने उस त्रुटिको दूर करनेका प्रयत्न किया और अन्तमें २७ प्रान्तीय घटक राज्योंका एक केन्द्रीय संघराज्य कायम हुआ जिसमें सभी प्रान्तीय लोगों का हित सुरक्षित रहे और बाहरके भय स्थानोंसे भी बचा जा सके। अब धर्म परम्परात्रोंको भी अहिंसा, मैत्री या ब्रह्मभावनाके अाधारपर ऐसा धार्मिक वातावरण बनाना होगा कि जिसमें कोई एक परम्परा अन्य परम्पराअोंके संकटको अपना संकट समझे और उसके निवारणके लिए वैसा ही प्रयत्न करे जैसा अपनेपर आये संकटके निवारणके लिए। हम इतिहाससे जानते हैं कि पहले ऐसा नहीं हुआ। फलतः कभी एक तो कभी दूसरी परम्परा बाहरी अाक्रमणोंका शिकार बनी और कम ज्यादा रूपमें सभी धर्म परम्पराअोंकी सांस्कृतिक और विद्यासम्पत्तिको सहना पड़ा। सोमनाथ, रुद्रमहालय और उजयिनीका महाकाल तथा काशी श्रादिके वैष्णव, शैव आदि धाम इत्यादि पर जब संकट श्राए तब अगर अन्य परम्पराअोंने प्राणार्पणसे पूरा साथ दिया होता तो वे धाम बच जाते । नहीं भी बचते तो सब परम्पराओंकी एकताने विरोधियोंका हौसला जरूर ढीला किया होता । सारनाथ, नालन्दा, उदन्तपुरी, विक्रमशिला श्रादिके विद्याविहारोंको बख्तियार खिलजी कभी ध्वस्त कर नहीं पाता अगर उस समय बौद्धतर परम्पराएँ उस आफतको अपनी समझती। पाटन, सारङ्गा, सांचोर, बाबू, झालोर श्रादिके शिल्पस्थापत्यप्रधान जैन मन्दिर भी कभी नष्ट नहीं होते । अब समय बदल गया और हमें पुरानी त्रुटियोंसे सबक सीखना होगा। __ सांस्कृतिक और धार्मिक स्थानोंके साथ-साथ अनेक ज्ञानभण्डार भी नष्ट हुए । हमारी धर्म परम्पराओंकी पुरानी दृष्टि बदलनी हो तो हमें नीचे लिखे श्रनुसार कार्य करना होगा। (१) प्रत्येक धर्मपरम्पराको दूसरी धर्मपरम्पराओंका उतना ही आदर करना चाहिए जितना वह अपने बारेमें चाहती है। (२) इसके लिये गुरुवर्ग और पण्डितवर्ग सबको अापसमें मिलने-जुलने के प्रसंग पैदा करना और उदारदृष्टिसे विचार विनिमय करना । जहाँ ऐकमत्य न हो वहाँ विवादमें न पड़कर सहिष्णुताकी वृद्धि करना । धार्मिक और सांस्कृतिक अध्ययन अध्यापनकी परम्पराअोंको इतना विकसित करना कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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