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________________ पौराणिक और ऐतिहासिक परिचय इतना अधिक मिल जाता है कि इसम वृद्धि करने जितनी नई सामग्री अभी नहीं है । भगवान् महावीर की जीवनी भी उस अभिनन्दन ग्रन्थमें संक्षेप से आई है। यहाँ मुझको ऐसी कुछ बातें कहनी हैं जो वैसे महात्माोंकी जीवनीसे फलित होती हैं और जो हमें इस युगमें तुरन्त कामकी भी हैं। महावीरके समयमें वैशालीके और दूसरे भी गणराज्य थे जो तत्कालीन प्रजासत्ताक राज्य ही थे पर उन गणराज्योंकी संघदृष्टि अपने तक ही सीमित थी। इसी तरहसे उस समय के जैन, बौद्ध, आजीवक श्रादि अनेक धर्मसंघ भी थे जिनकी संघदृष्टि भी अपने-अपने तक ही सीमित थी। पुराने गणराज्योंकी संघदृष्टिका विकास भारत-व्यापी नये संघराज्यरूपमें हुआ है जो एक प्रकारसे अहिंसाका ही राजकीय विकास है। अब इसके साथ पुराने धर्मसंघ तभी मेल खा सकते हैं या विकास कर सकते हैं जब उन धर्मसंघोंमें भी मानवतावादी संघदृष्टिका निर्माण हो और तदनुसार सभी धर्मसंघ अपना-अपना विधान बदलकर एक लक्ष्यगामी हों । यह हो नहीं सकता कि भारतका राज्यतंत्र तो व्यापक रूपसे चले और पन्थोंके धर्मसंघ पुराने ढर्रे पर चलें। आखिरको राज्यसंघ और धर्मसंघ दोनोंका प्रवृत्ति क्षेत्र तो एक अखंड भारत ही है। ऐसी स्थितिमें अगर संघराज्यको ठीक तरहसे विकास करना है और जनकल्याणमें भाग लेना है तो धर्मसंघके पुरस्कर्ताओंको भी व्यापक दृष्टिसे सोचना होगा। अगर वे ऐसा न करें तो अपने-अपने धर्मसंघको प्रतिष्ठित व जीवित रख नहीं सकते या भारतके संघराज्यको भी जीवित रहने न देंगे। इसलिए हमें पुराने गणराज्यकी संघदृष्टि तथा पन्थोंकी संघदृष्टिका इस युगमें ऐसा सामञ्जस्य करना होगा कि धर्मसंघ भी विकासके साथ जीवित रह सके और भारतका संघराज्य भी स्थिर रह सके । भारतीय संघराज्यका विधान असाम्प्रदायिक है इसका अर्थ यही है कि संघराज्य किसी एक धर्म में बद्ध नहीं है। इसमें लघुमती बहुमती सभी छोटेबड़े धर्म पन्थ समान भावसे अपना-अपना विकास कर सकते हैं। जब संघराज्यकी नीति इतनी उदार है तब हरेक धर्म परम्पराका कर्तव्य अपने श्राप सुनिश्चित हो जाता है कि प्रत्येक धर्म परम्परा समग्र जनहितकी दृष्टिसे संघराज्यको सब तरहसे दृढ़ बनानेका खयाल रक्खे और प्रयत्न करे। कोई भी लघु या बहुमती धर्म परम्परा ऐसा न सोचे और न ऐसा कार्य करे कि जिससे राज्यकी केन्द्रीय शक्ति या प्रान्तिक शक्तियाँ निर्बल हों। यह तभी सम्भव है जब कि प्रत्येक धर्म परम्पराके जवाबदेह समझदार त्यागी या गृहस्थ अनुयायी अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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