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________________ ऐतिहासिक भिन्नता है कि उस-उस परम्परामें जन्मा व पला हुआ और उस. उस परम्पराके संस्कारसे संस्कृत हुश्रा कोई भी व्यक्ति सामान्य रूपसे उन सब परम्पराअोंके अन्तस्तल में जो वास्तविक एकता है, उसे समझ नहीं पाता । सामान्य व्यक्ति हमेशा भेदपोषक स्थूल स्तरों में ही फँसा रहता है पर तत्वचिंतक और पुरुषार्थी व्यक्ति जैसे-जैसे गहराईसे निर्भयतापूर्वक सोचता है वैसे-वैसे उसको आन्तरिक सत्यकी एकता प्रतीत होने लगती है और भाषा, आचार, संस्कार आदि सब भेद उसकी प्रतीतिमें बाधा नहीं डाल सकते । मानव चेतना आखिर मानव-चेतना ही है, पशुचेतना नहीं। जैसे-जैसे उसके ऊपरसे प्रावरण हटते जाते हैं वैसे-वैसे वह अधिकाधिक सत्यका दर्शन कर पाती है । हम साम्प्रदायिक दृष्टिसे महावीरको अलग, बुद्ध को अलग और उपनिषद् के ऋषियोंको अलग समझते हैं, पर अगर गहराईसे देखें तो उन सबके मौलिक सत्यमें शब्दमेदके सिवा और मेद न पायँगे। महावीर मुख्यतया अहिंसाकी परिभाषामें सब बातें समझाते हैं तो बुद्ध तृष्णात्याग और मैत्रीकी परिभाषामें अपना सन्देश देते हैं। उपनिषदके ऋषि अविद्या या अज्ञान निवारणकी दृष्टिसे चिन्तन उपस्थित करते हैं। ये सब एक ही सत्यके प्रतिपादनकी जुदी-जुदी रीतियाँ हैं; जुदी-जुदी भाषाएँ हैं । अहिंसा तब तक सिद्ध हो ही नहीं सकती जब तक तृष्णा हो । तृष्णात्यागका दूसरा नाम ही तो अहिंसा है । अज्ञानकी वास्तविक निवृत्ति बिना हुए न तो अहिंसा सिद्ध हो सकती है और न तृष्णा का त्याग ही सम्भव है। धर्मपरम्परा कोई भी क्यों न हो, अगर वह सचमुच धर्मपरम्परा है तो उसका मूल तत्त्व अन्य वैसी धर्मपरम्परात्रों से जुदा हो ही नहीं सकता। मूल तत्त्व की जुदाई का अर्थ होगा कि सत्य एक नहीं । पर पहुँचे हुए सभी ऋषियोंने कहा है कि सत्यके आविष्कार अनेकधा हो सकते है पर सत्य तो अखण्डित एक ही है । मैं अपने छप्पन वर्षके थोड़े बहुत अध्ययन-चिन्तनसे इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि पन्थभेद कितना ही क्यों न हो पर उसके मूल में एक ही सत्य रहता है । आज मैं इसी भावनासे महावीरकी जन्मजयन्तीके स्थूल महोत्सवमें भाग ले रहा हूँ। मेरी दृष्टि में महावीरकी जयन्तीका अर्थ है उनकी अहिंसासिद्धिकी जयन्ती । और अहिंसासिद्धिकी जयन्तीमें अन्यान्य महापुरुषोंकी सद्गुणसिद्धि अपने आप समा जाती है। अगर वैशालीके आँगनमें खड़े होकर हम लोग इस व्यापक भावनाकी प्रतीति न कर सकें तो हमारा जयन्ती-उत्सव नए युगकी माँगको सिद्ध नहीं कर सकता। राज्यसंघ और धर्मसंघ वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ तथा जुदी-जुदी पत्रिकाओंके द्वारा वैशालीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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