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१२. अंतरंग-संधि
[कर्ता : रत्नप्रभ गणि
रचना-समय : ई. स. १३०० पूर्व]
ध्रुवक पणमवि दुइ-खंडण दरिय-विहंडण जग-मंडण जिण सिद्धि-द्रिय सुणि कन्न.रमायणु गुण-गण-भायणु अंतरंग मुणि संधि जिय ॥१
[१] इह अस्थि गामु भववास-नामु बहु-जीव-ठामु विसयाभिरामु दीसति जत्थ मणदिट्ठ छह बहु-रोग-सोग-दुइ-जोग-गेह बहु-पाव-ठाणु जहि हट्ट-उलि अइ भीम सीम जहिं कुगइ-पोली भन्नाण-रुवु जहिं गढु अहंगु । घण-कम्म-पयडि कविसीस-तुंगु जहिं दाण-साल गुरु नव-नियाण किरियाणग तेरस किरिय-ठाण जहिं घोर जम्म-जर-मरण-रूव मच्चंत-पंक-मल-सजल-कूव जहि आहि-वाहि अइ-दोह सेर अणवस्य जीव जहिं करई फेर जहिं इंदिय निंदिय दुट्ठ चोर छलिऊण लोगु विनडंति घोर भइ-कुर-कम्मि जहिं हम्ममाण विलवंति जीव असरण अताण जहिं सव्वउ वि घण अप्ति व वाडि जहिं पडइ अचिंतिय जमह धाडि तहिं मोह-नरेसर करइ रज्ज तिय-लोय दंड करणम्मि सज्ज 'नेरइय तिरिय अनु मणुय देव चउरो वि वन्न जसु करइ सेव १२ निम्लज्ज भज्ज तसु हुय पवित्ति न कयावि सीलु जसु फुरइ चित्ति उप्पन्नु पुत्तु तसु नामि पावु गय-सुकय भावु दुज्जण-सहावु संजाय तासु घृया कुबुद्धि
जसु दंसणि नासइ मण-विमुद्धि तसु मिच्छदिदिठ वट्टइ अमच्चु वाजरइ जो न सुमिणे वि सच्चु १६ तसु पुज्ज पुरोहिउ कुगुरु जाणि जो पावु करावइ ठाणि ठाणि तसु पिसुण दुन्नि चर राग-दोस जसु सेवग वट्टई सयल दोम
१८ पत्ता इय जण-मण-कंपणु पुहविहिं खंपणु जग-झंपणु परिवार-जुउ दुज्जण-अग्गेसरु मोह-नरेसर कुणइ रज्ज इग-उत्ति ठिउ ॥१९
1. B सुणि 2. B नरइय 3. A परोहिउ 4. अंत A. B इति प्रथमोधिकारः॥
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