________________
६२
मज्जेण मत्त विसयाण विगहा कसाय हारेइ जम्मु 'हायत्तु भविस्सइ भत्त-पाणु मुनिवरह अति सम्वन्न-धम्मु नरयम्मि जाइ जो करइ कोहु तिरियत्त होइ कवडत्तणेण धण-सयण-सोगि जगडीउ कहावि सिद्धत - सुणण को अम्ह कालु पावाण वि एउ महल्ल- पाउ आवरिउ जेण हिउ अहिउ अत्थु वित्त कुटुंबह करइ विट्ठ कज्जाण अंत तसु सुण्ण-वार नर-कुक्कुड-मक्कड-महिस-संड
संधिकाव्य-समुच्चय
-नाएण विवित्त-चित्त रमणीय रमतह रमणसील जिग-भासिउ न सुणइ तिजग-सारु असइ दुर्लभ रिण - सासणम्मि कारण पमाय मिल्देवि झत्ति तव दाण सील तिन्नि विपयार साइ सहियै घम्माणुठाणु
सुइ-सुद्धइ नर-भवि
निय - देहहि पाइय
Jain Education International
सो संजमु सतरह - मेय वृत्त मह गिन्दि महन्वय गुरु-अंति इय जीव गहिय सम्बन्नु दिक्ख तव - जोग-किरिय अज्झाहि सुत्त
निदा- पमाय सोयइ निचितु गुरु-जण - सगासि न सुणेइ धम्मु किविणत्तणि जोइ न सो अवाणु न सुइ ग इ तसु आलि नम्मु जयंति साहु तर माणु लोहु न सुणेइ जिणागमु तसु भएण मेलण उवाय चित तहा वि सुगुरुहिं वृत्त इय भणइ बालु जं जीव होई अन्नाण-भाउ न मुणेइ तस्स परिणमइ सत्त मूढउ न देइ परलोय - दिट्ठि सातसु न होइ सिद्धंत-सार (?) "जुज्झता पेक्खइ ते पयंड जिण वर्याणिहिं देइच मणु निरुत्त दिण जंति अहव कीडाइ लीण दुत्तरु तरेइ जिणि भवु अपारु लद्धम्मि जव पई माणुसम्मि वायाइ गमिति तुहु धम्म-तत्ति साइ रहिय ते पुण असार जे कुणहिं ति पावहिं परम-ठाणु
घत्ता
लद्धइ कमवि
कम्म निकाइय
[ 8 ]
संजमि वरिउ करह पुणु छिंदह जिम जिय इक्क-मणि ॥ ३३
कुण सव्व-विरइ सामइय-जुत्त संसारु जेहिं जोवा तरंति आसेवण - गहणा-सिक्ख भिक्ख भावेसु अत्थु तह एग-चित्तु 5. सुरु
1. दायत 2. कुज्झता 3. सहीय 4 ज
For Private & Personal Use Only
१४
१६
१८
२०
२२
२४
२६
२८
३०
३२
४
www.jainelibrary.org