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संधिकाव्य-समुच्चय
कह वि मणुआइ-सामग्गिय पत्तओ तह वि विसयामिसे गाढ अणुरत्तओ लक्ख-चुलसीइ जोणीइ पुण भामिओ मोहराएण रे जीव अस्सासिओ २० पुग्गलाणं परावत्तयाऽणंया हिंडिया जीव न हु कह वि उवसंतया देव-गुरु-धम्मु न कयाइ उबलद्धओ तेण एओ जीवु कम्मेहिं संरुद्धओ २२ सुक्खु पच्चक्खु दुक्खं पि मेरूवमं अहह अद्दिट्ठ पुण मन्नए तिणसमं विरस संसार-दुच्चिट्ठियं हिट्ठयं बपु रि जीवाण भव-भमणु हा निट्ठियं २४ कह वि पई पत्त सामग्गियं मग्गियं हेव रे जीव तं कुणसु सुहमग्गिय चारगागार-संसार-सुहमुज्झिउं जुत्त ते सुहय पियमप्यियं उज्झिउं २६ सयल-लच्छीइ लद्धाइ किं आगये अह सकम्मेहिं दुत्थेण किं ते गयं राग-दोसे व ते दोवि जिय मिलिहउं जत्तु संतोस-निव-पासि तुह मल्हिउं २८ जत्थ सुपसत्थ निग्गंथ-मत्थय-मणी जयइ जंबू-गणी भुवण-चिंतामणी । एवमन्ने वि सिरि-थूलभद्दाइणो एय सिरि-बयरमुणि-सामि सुयनाणिणो ३०
घत्ता इय विविह-पयारिहिं विहि-अणुसारिहिं भाविहिं जिणपहमणुसरहु सुत्तेण य पवरिहि आणा-सुतरिहिं भवियण भव-सायरु तरहु ।।३१
अंत :- ॥ जीवाणुसट्ठि-सधि समत्ता ॥
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