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७. अणाहि-संधि [ कर्ता : जिनप्रभसूरि रचनासमय : ई. स. १२२५ थी १२७५ वच्चे]
ध्रुवक जस्मज्जवि माहप्पा, परमप्पा पाणिणो लहुं हुंति
तं तित्थं सुपसत्थ, जयइ जए वीर-जिणपहुणो ॥१ विसएहि विनाडिउ, कसाय-जगडिउ, हा अमाहु तिहुयणु भमइ जो अप्पं जाणइ, सम-सुहु माणइ, अप्पारामि सु अभिरमइ ।।२
रायगिहि नयरि सेणीउ राउ सो अन्न-दिवसि उज्जाणि पत्तु वपु रूवु वन्नु लावन्न-पुन्नु नरराय अहं बहुविह अणाहु तं अप्पणो वि नरवइ अणाहु किं मई न हु जाणइ नरवरिंदु गय-हय-रह-जोह-सपाहु रज्जु मुणि भणइ पुण वि जगु सउ अणाहु कोसंबीनयरीइ जं जि वित्तु, तहिं अत्थि पिया मह सुह-विहारु पढमे वयम्मि मह रोग रोग पिय-माइ-भाय-भइणी य सयण मह रोग-पीड इक्कु वि न लेइ । जो इक्कु वि रोग निराकरेइ न हु केणइ फेडिय पीड मज्झ सुकलत्त-पुत-परियण-सुमित्त छुह-तन्ह-पराभव-दुह-विचित्ति देविंद-विंद-वंदिय-जिणिद
गुरुभत्ति-निवेसिय-वीयराउ मुणि पिक्खिवि पणमइ नमिय-गत्तु २ किं मुणि नवजुव्वणि सरसि रन्नु मुणि भोग, माणि हउ तुज्झ नाहु ४ अन्नेसि होसि किम भणइ साहु । जं एरिसु पभणइ मुणिवरिंदु संपज्जइ मण-वछीउ कज्जु असहाइउ भमडइ भवु अगाहु तं सुणि मगहाहिव एग-चित्तु सुकलत्त-पुत्त-सुहि-सयण-सारु उप्पन्ना विज्जह मुक्क जोग विलवई विविहाइ दीण-वयण पुण पासि बइठ्ठउ रुणझुगेइ मह जणउ तस्स धणु भूरि देइ १४ इय वेअण सव्वहं हुअ असज्झ न हु मंत-तंत तसु विढत्त चित्त १६ हा हा अणाह संसार-गुत्ति पय मुत्तु नाहु न हबइ नरिंद १८
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