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કર
संधिकाव्य-समुच्चय
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४
वहुयाहं एग गुरु-हार आसि निय-अवसरि जायउ तासु तणउ पइवासरु वड्ढइ सो सुवाल निसुणिवि कयाइ निय-ताय-चरिउ तहिं वण-पएसि निय-ताय-मुत्ति जिण-वेसिण पाओवगमि ठाइ तसु उप्परि देउलु चंग-सिंगु नेवज्ज-पुज्ज-पेच्छण-छणाइ
न स दिक्खिय थक्किय गेहवासि जिंव हीरउ रोहण-खाणि-तणउ जिव वण-निगुंजि सहयार'-सालु अइ चित्ति चमक्किउ हरिस-भरिउ सु करावइ ठावइ सुह-मुहुत्ति सहुँ चेल्लुगेहिं सिव जेव खाइ स-जणेर-नेहिं कारइ सु तुंगु तहिं सव्वु करावइ निच्चु जाइ
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८
घत्ता
कालक्कमि जायउ महकालु कहिज्ज
सो विक्खायउ अज्ज वि विज्जइ
तित्थु तित्थु लोयह तणउ मुणि-सियालि-रूवग-जूयउ ॥९
1. P .र-रसालु 2. L चेल्लिगेहिं 3. L लोय अंत: P. L. ॥ इत्यवंतिसुकुमाल-संधिः ।।
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