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अणाहि-महरिसि-संधि तुटु नरनाहु कय-अंजलि पभणए
'कहिउ जहट्ठिउ अणाहत्तयं मह तए खमसु पहु जाण-वाघाउ जो तुह कउ .
खोहु मायासु आसायणा अविणउ काम भोगेहिं जं मूढ न हु तिप्पए'
कुणवि पयाहिणं पुणु वि पुणु खामए भत्तिसारं च पणमेइ मुणि सेणिउ
पत्तु निय-नयरि दिण गमइ जिण-धमि रउ मुक्क-संगो य मुनि विहरए महियलं
सुद्ध-चरणेण मणु सरिस सारय-जलं भविय बोहंतु रक्खंतु वर-संजमो
सिद्धि बहु-संगमस्थं करंतुज्जमो अत्थु पुत्तस्स (१) संमुँह रिसि वइयरो
'कहिउ निय-मण-सुहो अवर-जण-सुहयरो चरिउ मुणिराय जे सुणहिं भावहिं मणे : साहं न दुहु होइ सुहु लहहिं अणुदिणु जणे १२
घत्ता रिसी- चरिउ सुणेविणु चरणु मुर्गविणु होहु भविय स-मुत्ति थिर चंदुथ(ज्ज !)लु मणु करि समुपतिठायरि (१) खमहु कम्म संचिय जि चिर॥१३
1.माएयनलं 2 संमह वि रि०3. मणु 4 अन्तः ॥ इतिः श्री अनाथी महर्षि संधि समाप्तः । लोक-संख्या १११ ॥द०॥
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