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संधिकाव्य-समुच्चय
घत्ता
उवहाणु सुपत्थइ पोसहु पालेविणु
चित्ति पसत्थइ वायण लेविणु
करि चउत्थु पण अबिलइ मणुयत्तणु सहल करह
॥१२
इहु मणि उवहाण तवु पहाणु इक्कासी अंबिल जासु माणु उववास इत्थ च उवीस हुति पोसह पंचुत्तर सउ लियंति अह बाल वुड्डु तव-सत्ति-हीणु न हु सक्कइ इणि परि करि निहोणु सो अंबिल निवि य इगासणेहिं पूरइ उववास बि-आसणे हिं पासाइ कलसु बिंबिहिं पइट्ठ सोहइ जह देउलु वय विसिट्ठ भोयणु तंबोलि वर-तिलउ भालि तिमु सोहइ तवु उज्जमण-कालि उवहाण वहि वि जे माल लिंति ते सिद्धि-सुक्ख निच्छइ लहति ते अन्न-जम्भि न हु दास पेस मणुयत्ति न पावहिं दुह-विसेस । अह रु(क)णय माल जिण कारवेवि साहम्मी गुरजण बंधु लेषि कारंति नंदि अइ-उच्छवम्मि नक्खत्त-जोग सुंदर-दिणम्मि
पत्ता भोयण-तंबोलिण वत्थ-विसेसिण सम्माणवि साहम्मि-जण पुरि उत्स(छ)वु कारहिं संघु हकारहिं गुरु पडिलाहहिं सुद्ध-मण ॥११
[४] अह तिन्नि पक्खिण जिण करेवि वंदेविणु चेइय वास लेवि गुरु मंत-मुट्ठि तसु सिरि खिवेइ 'तित्थारग पारग पारगु' तं भणेइ २ तो नियम देइ देसण करेइ
कर-अंजलि सो विरइवि सुणेइ 'भो तई फलु लाद्धउ मणुय-जम्म अरु दिन्नु जलंजलि असुह-कम्म ४ जम्मंतरि तुहुं हुअ सुलह बोहि
भव-भ[म]ण-पाव किय तइं विसोहि मह संघ चउब्धिह वास लेवि
तं धन्नु सुलक्खणु भणि विवेइ ६ सुगंध कुसुम वा(१) माल ताम
तसु बंधु ठवेइ कंठि जाम बज्जति गहिर तं पंच-सदि
नच्चहिं अनु गायहिं अइ सु-सदि ८ उवहाण पवरु तव इम करेइ
निय-धण-तणु-जीविय-फल गहेवि जई सिद्धि न पावहिं काल-जोगि सुह लहहिं तह वि गय अमर-लोगि १०
पत्ता इय तव-उवहाणह . संधि पहाणह .. जयसेहरसूरि-सीसि कय जे पढहिं पढावहिं अनु मनि भावहिं ते पावहिं सुह-परम-पय ११. अंतः ।। इति उपधान-संधि ॥
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