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१६. उवहाण-संधि [कर्ताः जयशेखरसूरि-शिष्य रचना-समयः ई. स. १४०० पूर्व]
ध्रुवक फलवद्धिय-मंडणु दुह-सय-खंडणु पास-जिणि[द] नमेवि करि जिण-धम्म-पहाणहं तव-उवहाणहं संधि सुणहु जण कन्नु धरि ॥१
[१] सिरि-चरम जिणेसर-वद्धमाणि
पमणिउ जह गोयम महुर-वाणि सिद्धत-मज्झि जसु पढम लोह
तसु भणिउ पमाणु महानिसीह २ जह गिरिहिं मेरु गह-गणहं चंदु निवईण चक्कि सुर-गणि सुरिंदु तह वीर-जिणेसरि तव-पहाणु
वहाणु भणिउ गुण-गण-निहाणु ४ जे निम्मल-वयण जण सोलवंत
सम्मत्त-कलिय तह पुन्नत नीरोग-देह दढ-धम्म-गेह
तव-सत्ति-जुत्त परिचत्त-गेह एवंविह सावय साविया य
उवहाण वहहिं कय भावि भाव साहज्जिण नियय कुडं बयस्स सामग्गि सुगुरु निम्मल वयस्स ८ आरंभ नंदि-चेईहरम्मि
कारावहिं भवियण उत्स(च्छ)वम्मि गुरु सीसि वासु तसु पक्खिवंति परमिट्टि पंच तव उद्दिसंति
पत्ता साहम्मिय-वच्छलु कार व निम्मल सुगुरु-पासि पोसहुलियहि समभाव-सइत्तउ जयण करंतउ तव करेइ निज्जिय-करणु ॥११
[२] अह पढमुत्रहाणि उवास पंच
करि वायण गिण्हइ पयह पंच अंबिल अड अहमु तह य अति बिय वायण पोसह सोलसं ति २ पडि कमण-खधि बोयम्मि जाणि तवु वायण पोसह पढम-माणि पण-संपय-वायण एग इत्थ
बोया तिहुं संपय होइ तित्थ ४ भावारिहंत सक्क-थयम्मि
अट्ठमि तवि वायण पढम जम्मि . तो सोलस अपिल वायणा य
पुण सोलप्त करि फल लेहि काय ६ वायण तिहुं तिहुं संपएहिं
पणतीसिहि पुजहि संपोसएहिं अरिहंत-वइण उववास अंति
अबिल तिय पोसह चउ हवंति ८ इय वायण अह पंचम-तवम्मि गुरि वायणि दिग्जहिं तिन्नि तम्मि अट्ठम अनु अंबिल पंचवीस
पोसह परिजहि अट्ठबीस १०
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