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संधिकाव्य-समुच्चय निविउ कोह तहिं उवसमेण गय-पाणु माणु किउ मद्दवेण जैस-सेस माय किय अज्जवेण संतोसि लोहु निहणिउ जवेण संवेग-सुहडि नासिय पमाय . तसु मरणि पलाइउ नो-कसाय कंदप्पु हणि उ सीलेण वेगि हय राग-दोस तक्वणि विवेगि वेरगि समिय तहिं सुनीइ-लग्गि अवसेस सुहड जिम नीरि अग्गि निय-सिन्न-विणासणि फुरिय-कोहु रणि चडिउ 'जिणग्गलि भणइ मोहु १८ 'इह वट्टमाणि मह सज्जि रज्जि तई छत्तु उठाइउ कवण कज्जि स्वय-कारणु तुह उदउ वि एउ° पंखागमु कीडिय अंत-हेउ' २० जिणि भणिउ 'नासि मिल्हिवि' पएसु हुइ रंक-रोसु खलु पाण-सोसु । मइं हणिउ तुझ मण-नामु ताउ हिव फेडिसु जगि तुह मोह ठाउ' इणि वयणि कुविउ निवु मोह-मल्लु झुझण-संलग्गउ ति-जग-सल्लु जिणि झाण-खग्गि गय-उत्तमंगु किउ वेगि लहइ सो कुमई-संगु २४ तसु सोगि सहोयर अवर सत्त अइ-दुट्ठ-कम्म पाणेहिं चत्त तं पिक्खि कुबुद्धि वि भोय-चित्त नासेविणु अभविय-सरणि पत्त तक्खणि जिणु केवलि विमल-नाणु । शलहलिउ जेम घण-मुक्कु भाणु जय-जय-रव-संजय कुसुम-वुट्ठि किय तसुवरि सुरवर-वग्गि तुट्ठि २८ जय-तंबग वज्जिय जिणिय-घाय" संजम-पुरि उब्भिय जय-पडाय जिणु मग्गिउ भवियणि भट्टि झत्ति 'भवि भवि 19मइ देज सुपइ पत्ति' ३० जिणि रज्जि ठविउ निय-पढम-पुत्तु अवरो वि हु "जुव-निव-पइ निउत्तु अप्पणि जो पत्तउ सिद्धि-ठामि । सो संघह मंगल दिसउ सामि ३२ इय अंतरंग-सुवियार-संधि । चिंतंतु न बज्झइ कम्म-बंधि सुह-शाणह चित्तह करइ संधि तिणि कारणि भणीयइ एह संधि ३४
पत्ता अहि-अंतह कारणु विस-उत्तारणु जंगुलि-मंतह "पढणु जिम कय-सिव-सुह-संधिहि एह सु-संधिहि चिंतणु जाणउ भविय तिम" ॥ ३५
__ 1. B. तिहिं 2 B. जंस 3. A. समीइ 4. B. सत्ति ५. B जणग्गलि 6. A. एहु 7 B. एउसु 8. B. राउ 9. B. कुविय 10. B.कुगइ 11. B. घाण 12 B. मइउं दे जेम मपत्ति 13. B. हुव 14 B गहणु 15 अंत : A इति अंतरंग संधिः समाप्तः ॥ इति नवमोऽधिकारः ॥छ। संवत १३९२ वर्षे आषाढ शुदि गुरी छ।। ग्रंथाग्रे लोक २०६ श्री धर्मप्रभसूरि-रत्नप्रभकृतिरियं ॥छ।। B. ॥ इति मोहसेना-पराजयः जिनसेना-विजयो नाम नवमोधिकारः॥ इति अतरंग-संधि समाप्ता ॥ कृतिरिय पं. रत्नप्रभगणीनां ॥छ।।
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