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इस टीका से श्रीवल्लभ की प्रौढ एवं बहुमुखी प्रतिभा, शब्द-व्युत्पत्ति-ज्ञान एवं कोश, काव्यादि ग्रन्थों के विशाल ज्ञान का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है । दुर्भाग्य है कि इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण टीका साहित्यजगत में अभी तक प्रकाश में नहीं आई है।
इस सारोद्धार में काण्ड ६ पद्य १७१ की व्याख्या में सम्वत् शब्द का उदाहरण देते हुए 'सिद्धहेमकुमारसम्वत् ' का उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व का है । इससे यह तो निश्चित है कि इस सिद्धहेमकुमारसम्वत् का नाम-प्रचलन १७ वीं शती के उत्तरार्द्ध तक अवश्य था । तदनन्तर तो सम्भवतः इस नाम का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता ।
इस टीका की अनेकों प्रतियाँ बड़ा ज्ञानभण्डार बीकानेर, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, एवं शारदा कार्यालय बीकानेर आदि स्थानों पर प्राप्त हैं ।
६. सिद्धहेमशब्दानुशासन टीका आचार्य हेमचन्द्रग्रणोत सिद्धहेमशब्दानुशासन पर श्रीवल्लभ ने इस टीका की रचना की है । इसकी एकसौ तैयालीस १४३ पत्रों की एक मात्र प्रति 'श्रीविजयधर्मलक्ष्मी-ज्ञानमन्दिर, आगरा, में सुरक्षित है । इस प्रति का मैं आज तक अवलोकन नहीं कर पाया हूँ।
७. सारस्वतप्रयोगनिर्णय - नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सारस्वत व्याकरणस्थ कतिपय शब्दों के प्रयोग का निर्णय किया गया है । इसको रचना श्रीजिनराजसूरि के राज्य में (सं. १६७४-१६९०) में हुई है । साहित्यरसिक श्री अगरचन्द्रजी नाहटा की सूचनानुसार इसकी २३ पत्रात्मक एकमात्र प्रति 'भावहर्षीय खरतरगच्छ ज्ञानभण्डार, बालोतरा' में थी । दुःख है कि बालोतरा का ज्ञानभण्डार अस्त-व्यस्त होकर बिक चुका है।
८. विदग्धमुखमण्डन टीका श्री अगरचन्द्रजी नाहटा की सूचनानुसार इसकी. एक अपूर्ण प्रति 'पारीक संस्कृत पाठशाला. मेड़ता सीटी' में प्राप्त है ।
९. अजितनाथस्तुति टीका खरतरगच्छीय महोपाध्याय जयसागरजी ने चतुःपद्यात्मक साधारणजिनस्तुति की रचना की थी, जो कि यमकालङ्कारमय एवं स्रग्विणी छन्द में निबद्ध है । सं. १६६९ में जोधपुर में महाराजा सूरसिंहजी के राज्यकाल में श्रीवल्लभोपाध्याय का किसी विद्वान् के साथ वादविवाद (शास्त्रार्थ) हुआ था । उसी शास्त्रार्थ के प्रसङ्ग में श्रीवल्लभोपाध्याय ने पूर्वोक्त साधारणजिनस्तुति का मूलार्थ का (वास्तविक अर्थ का) परिहार करके इसे अजितनाथ भगवान की स्तुति सिद्ध करते हुये भिन्न-भिन्न नवीनाथों द्वारा व्याख्या-द्वय की रचना की । जो कि टीका की आद्यन्त-प्रशस्ति से स्पष्ट है :[आदि
श्रीमन्तमजितं नुत्वा श्रीश्रीवल्लभवादिभिः । वास्तवार्थं परित्यज्य नवोनोऽर्थः प्रकाश्यते ॥१॥
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