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स्तुतेरजितनाथस्य द्वितीयस्य जिनेशितुः । यमकस्रग्विणीछन्दःकृताया जयसागरैः ॥२॥ सर्वतीर्थकृतामेषा साधारणा स्तुतिः खलु । तथाप्यजितनाथस्य ज्ञेया भिन्नार्थतो बुधैः ॥३॥
[अन्त]
श्रीजिनेश्वरसूरीन्द्राद्यः ख्यातः शोभतेतराम् । नित्योत्कृष्टक्रियाचारो गच्छः खरतराभिधः ॥१॥ युगप्रधान आभाति जिनचन्द्रस्तदीश्वरः । अकबरशिलेमाख्य-साहिदत्तघनादरः ॥२॥ तच्छिष्यः साम्प्रतं सम्यग् युवराज भुनक्त्य[पि । वादिद्विरदसिंहो यो जिनसिंहः स सूरिराट् ॥३॥ तयो राज्ये कृता वृत्तिः स्तुतेः श्रीअजितार्हतः । ज्ञानविमलपाठकशिष्यैः श्रीवल्लभाभिधैः ॥४॥ अत्र वृत्तौ बुधैज्ञेयं व्याख्याद्वयमनिन्दितम् ।
त्ताद्ध शोध्यं सम्यककृपापरैः ॥९॥ स्तुतिरेषा कृता श्रीमज्जयसागरपाठकैः । यमकस्रग्विणीछन्दोमयी साधारणाहताम् ॥६॥ केनाऽपि विदुषा सार्द्ध विवादादजितार्हतः । वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति ॥७॥ नवरसरसादित्यसंख्ये (१६६९) वर्षे सदासुरौ । श्रीमद्योधपुरे राज्ये सूरसिंहमहीपतेः ॥८॥ स्तुतिवृत्तिरिय शश्वद् वाच्यमाना कवीश्वरैः । नन्दताच्छारदादेवीप्रसादाज्जगतीतले ॥९॥
यदशद्ध
जैनागम, व्याकरण, काव्य, कोष, निघण्टु आदि के लगभग ४० ग्रन्थों के उद्धरण देते र स्तति के प्रत्येक अक्षर एवं शब्दों के श्रीवल्लभ ने जो नवीन-नवीन अर्थों की कल्पना की है वह वस्तुतः अनुपम है और इन के प्रगाढ-पाण्डित्य की द्योतक है ।
इसकी एकमात्र ५ पत्रों की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर. अहमदाबादस्थ मुनि श्री पुण्यविजयजी संग्रह ग्रन्थाङ्क ५२५० पर सुरक्षित है।
१०. शान्तिनाथ विषमार्थस्तुतिव्याख्या "वाराण वरण रणं रणरणं वारारणं वीरणम्" शब्दालंकृत, शार्दूलविक्रीडित छन्द में ग्रथित, यमक-लेषगर्भित ४ पद्यों की यह साधारण जिनस्तुति है । इस स्तुति का कर्ता अज्ञात है। टीकाकार ने भी कर्ता के विषय में कोई संकेत नहीं दिया है । पूर्वोक्त अजितनाथ स्तुति की तरह ही इस साधारणजिन स्तुति को श्रीवल्लभ ने अपनी वैदग्ध्य एवं चमत्कारपूर्ण शैली द्वारा शान्तिनाथ की स्थापना कर टीका की रचना की है। अजितनाथ स्तुति टीका की
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