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________________ तीसरा स्तबक तस्याश्चानेकरूपत्वात् परिणामित्वयोगतः १ । आत्मनो बन्धनत्वाच्च नोक्तदोषसमुद्भवः ॥२३३॥ क्योंकि यह कर्मप्रकृति अनेक प्रकार की है, क्योंकि उसमें रूपरूपान्तरण की प्रक्रिया चलती है, क्योंकि उसके द्वारा आत्मा का बंधन संभव हैं इसलिए प्रस्तुत मत में उन दोषों के लिए अवकाश नहीं है जो अभी पीछे वर्णित मत में दिखाए गए थे : नामूर्तं मूर्ततां याति मूर्तं न यात्यमूर्तताम् । तो बन्धाद् यतो न्यायादात्मनोऽसंगतं तया ॥२३४॥ आपत्ति उठाई जा सकती है कि क्योंकि एक मूर्त वस्तु अमूर्त नहीं बन सकती तथा एक अमूर्त वस्तु मूर्त नहीं बन सकती, इसलिए यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि कर्मप्रकृति के द्वारा आत्मा का बंधन आदि हुआ करता है । इस पर हमारा उत्तर है : देहस्पर्शादिसंवित्त्या न यात्येवेत्यत्युक्तिमत् । अन्योन्यव्याप्तिजा चेयमिति बन्धादि संगतम् ॥ २३५ ॥ ६७ शरीर को छूने आदि के फलस्वरूप ( आत्मा में) अनुभूति का होना सिद्ध करता है कि 'एक अमूर्त वस्तु मूर्त नहीं बन सकती' यह कहना अ-युक्तिसंगत है; और उक्त अनुभूति का कारण हैं आत्मा तथा शरीर का परस्पर घनिष्ठ संबन्ध। अतः यह भी सिद्ध हुआ कि कर्म-प्रकृति द्वारा आत्मा का बंधन आदि होना एक युक्ति-संगत मान्यता है । टिप्पणी — हरिभद्र का आशय यह है कि एक शरीर का इस उस प्रकार की वस्तुओं से स्पर्श होने पर इस शरीर में अवस्थित आत्मा इस उस प्रकार की (अर्थात् सुख-दुःखात्मक) अनुभव करने लगती है, और इससे वे निष्कर्ष निकालते हैं कि एक शरीर तथा इस शरीर में अवस्थित आत्मा के बीच कोई घनिष्ठ संबंध हुआ करता है । इस अनुभवगोचर दृष्टान्त की सहायता से हरिभद्र यह सिद्ध करना चाहते हैं कि चेतन आत्मा का जड़ 'कर्मों' के साथ एक ऐसा घनिष्ठ संबंध होना संभव है जो आत्मा को संसार-बंध में डाल सके । मूर्तयाऽप्यात्मनो योगो घटते नभसो यथा । उपघातादिभावश्च ज्ञानस्येव सुरादिना ॥२३६॥ १. क का पाठ : परिणामत्व' । २. ख का पाठ : नायास्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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