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तीसरा स्तबक
टिप्पणी-यहाँ 'यम आदि' से आशय उन आठ सदनुष्ठानों से हैं जिन्हें सांख्य-योग परंपरा में 'योगांग' नाम दिया गया है । आठ योगांग निम्नलिखित हैं
यह, नियम, आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । आत्मा न बध्यते नापि मुच्यतेऽसौ कदाचन । बध्यते मुच्यते चापि प्रकृतिः स्वात्मनेति चेत् ॥२२७॥
कहा जा सकता है कि आत्मा का न तो कभी बन्ध होता है न कभी मोक्ष, अपितु प्रकृति ही अपने आप कभी बन्ध की भागी बनती है, कभी मोक्ष की । इस पर हमारा उत्तर है :
एकान्तेनैकरूपाया नित्यायाश्च न सर्वथा ।
तस्याः क्रियान्तराभावाद् बन्धमोक्षौ तु युक्तितः ॥२२८॥
जब प्रकृति सर्वथा एक रूप वाली तथा नित्य है तब उसमें एक क्रिया के स्थान पर दूसरी क्रिया का उत्पन्न होना संभव नहीं, और ऐसी दशा में प्रकृति के बन्ध-मोक्ष की बात करना युक्तिसंगत नहीं ही है ।।
मोक्षः प्रकृत्ययोगो यदतोऽस्याः स कथं भवेत् ।
स्वरूपविगमापत्तेस्तथा तन्त्रविरोधतः ॥२२९॥
फिर प्रस्तुत वादी की मान्यतानुसार मोक्ष नाम है प्रकृति के संबन्धविच्छेद का और ऐसी मोक्ष प्राप्त करना प्रकृति के लिए कैसे संभव होगा, क्योंकि तब तो प्रकृति का स्वरूप ही नष्ट हुआ मानना पड़ेगा । दूसरे, उक्त कल्पना (अर्थात् 'प्रकृति का प्रकृति से संबन्धविच्छेद' की कल्पना) प्रस्तुत वादी के स्वीकृत शास्त्र के विरुद्ध जाती है ।
पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥२३० ॥ पुरु षस्योदिता मुक्तिरिति तन्त्रे चिरन्तनैः । इत्थं न घटते चेयमिति सर्वमयुक्तिमत् ॥२३१॥
१. ख का पाठ : सुयुक्तितः ।
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