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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
चाहिए । इस सबका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार पुरुष कभी भोगकर्ता बनता ही नहीं ( वरना उसे मुक्ति - अवस्था में भी भोगकर्ता बने रहना चाहिए) ।
न च पूर्वस्वभावत्वात् स मुक्तानामसंगतः । स्वभावान्तरभावे च परिणामोऽनिवारितः ॥२२४॥
क्योंकि प्रस्तुत वादी के मतानुसार मुक्त पुरुष संसारी अवस्था में एक स्वभावविशेष वाले थे । (अर्थात् अपनी परछाईं बुद्धि में डालने वाले अतः भोगकर्ता थे) इसलिए हमारी यह आपत्ति अयुक्तिसंगत नहीं कि उसके मतानुसार ये मुक्त पुरुष मुक्ति-अवस्था में भी उसी स्वभावविशेष वाले होने चाहिए (अर्थात् अपनी परछाईं बुद्धि में डालने वाले अतः भोगकर्ता होने चाहिए); और यदि कहा जाए कि मुक्त पुरुषों में किसी ऐसे नए स्वभाव का जन्म हो जाता है जो संसारी अवस्था में उनमें वर्तमान न था तब प्रस्तुत वादी यह मानने को विवश हो गया कि पुरुष एक ऐसा तत्त्व है जिसमें रूप-रूपान्तरण की प्रक्रिया चला करती है ।
देहात् पृथक्त्व एवास्य न च हिंसादयः क्वचित् । तदभावेऽनिमित्तत्वात् कथं बन्धः शुभाशुभः ॥ २२५ ॥
यदि आत्मा शरीर से पृथक् ही है तब हिंसा आदि कभी संभव नहीं होने चाहिए ( क्योंकि तब तो कहा जा सकेगा कि हिंसा आदि क्रियाएँ शरीर पर की जाती हैं आत्मा पर नहीं), और हिंसा आदि के अभाव में शुभ-अशुभ कर्मबन्ध कैसे संभव होगा, क्योंकि उस दशा में तो कर्मबन्ध का निमित्त कारण ही उपस्थित न होगा ।
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय है कि कर्मबन्ध का निमित्तकारण हिंसा आदि ही हैं ।
बन्धाहते न संसारो मुक्तिर्वास्योपपद्यते ।
यमादि तदभावे च सर्वमेव ह्यपार्थकम् ॥२२६॥
कर्मबन्ध के बिना एक आत्मा के लिए न तो पुनर्जन्मचक्र में भ्रमण करना संभव है न मोक्ष प्राप्त करना । और मोक्ष के अभाव में यम आदि सभी सदनुष्ठान ( जो मोक्ष - साधन माने गए हैं) बेकार सिद्ध होंगे ।
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