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तीसरा स्तबक
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से पृथक् तो नहीं (और वह इसलिए कि प्रस्तुतवादी के मतानुसार आत्मा सर्वव्यापी है) । यदि कहा जाए कि शरीर आत्मा से सचमुच पृथक् है तो हमारा प्रश्न होगा कि तब आत्मा भोगकर्ता कैसे (और वह इसलिए कि शरीर की सहायता से ही तो आत्मा भोगकर्ता बन सकता है) ।
देहभोगेन नैवास्य भावतो भोग इष्यते । प्रतिबिम्बोदयात् किन्तु यथोक्तं पूर्वसूरिभिः ॥२२०॥
उत्तर दिया जा सकता है : 'क्योंकि भोगकर्ता शरीर है, इसलिए आत्मा में भोग-कर्तृत्व वास्तविक नहीं किन्तु परछाईं पड़ने जैसा है। जैसा कि प्राचीन मनीषियों का कहना है :
"पुरु षोऽविकृतात्मैव स्वनि समचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ॥२२१॥ विभक्तेदृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते ।
प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोऽम्भसि" ॥२२२॥
"पुरुष (अर्थात् आत्मा) स्वयं अविकारी स्वरूप वाला बना रहते हुए ही अचेतन मन को अपने जैसा (अर्थात् चेतन जैसा) बना देता है उसी प्रकार जैसे स्फटिक के पास रखी हुई रंगीन वस्तु स्फटिक को अपने जैसा (अर्थात् रंगीन) बना देती है । पुरुष से पृथक् स्थित बुद्धि (अर्थात् मन) जब इस प्रकार रूपान्तर प्राप्त कर लेती है तब हम कहने लगते हैं कि पुरुष भोग कर रहा है; यह कहना वैसे ही है जैसे स्वच्छ जल में पड़ी हुई चन्द्रमा की परछाईं को चन्द्रमा मान लिया जाए (तथा इस परछाईं की क्रियाओं को चन्द्रमा की क्रियाएँ मान लिया जाए) ।" इस पर हमारा कहना है :
प्रतिबिम्बोदयोऽप्यस्य नामूर्तत्वेन युज्यते ।
मुक्तैरतिप्रसंगाच्च न वै भोगः कदाचन ॥२२३॥
(बुद्धि में) पुरुष की परछाईं पड़ने की बात युक्तिसंगत नहीं और वह इसलिए कि पुरुष एक अमूर्त (अभौतिक) तत्त्व है (जबकि प्रतिबिंबपात्र में अपनी परछाईं डालने की क्षमता एक भौतिक द्रव्य में ही संभव है)। दूसरे, यदि संसारी पुरुष की परछाईं बुद्धि में पड सकती है तो मुक्त पुरुषों की भी पड़नी
१. ख का पाठ : मुक्तेर ।
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