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शास्त्रवार्तासमुच्चय
माना गया है, लेकिन जब तक प्रधान अपने मूल-स्वरूप का परित्याग न करेगा, उससे महत् आदि की उत्पत्ति कैसे होगी ?
तस्यैव तत्स्वभावत्वादिति चेत् किं न सर्वदा ।
अत एवेति चेत् तस्य तथात्वे ननु तत् कुतः ? ॥२१६॥
कहा जा सकता है, कि महत् आदि को उत्पन्न करना प्रधान का स्वभाव ही है, लेकिन तब हमारा प्रश्न है कि प्रधान से महत् आदि की उत्पत्ति सब समय क्यों नहीं होती ? उत्तर दिया जा सकता है कि यह भी प्रधान का स्वभाव ही है (अर्थात् यह भी प्रधान का स्वभाव ही है कि वह महत् आदि को उत्पन्न करे लेकिन उस उस समय पर); लेकिन इस पर हमारा प्रश्न है कि प्रधान से महत् आदि की उत्पत्ति उस उस समय पर भी कैसे संभव होगी जब तक वह (अर्थात् प्रधान) अपने मूलस्वरूप में अविकृत भाव से वर्तमान है ।
नानुपादानमन्यस्य भावेऽन्यज्जालुचिद् भवेत् ।
तदुपादानतायां च न तस्यैकान्तनित्यता ॥२१७॥
एक वस्तु (उदाहरण के लिए, प्रधान) के उपस्थित रहने पर भी एक दूसरी वस्तु (उदाहरण के लिए, महत्) की उत्पत्ति तब तक नहीं हो सकती जबतक इस दूसरी वस्तु का उपादानकारण भी उपस्थित न हो; और यदि उक्त पहली वस्तु ही उक्त दूसरी वस्तु का उपादानकारण है तब उसे (अर्थात् पहली वस्तु को) नितान्त नित्य (अर्थात् अविकृत भाव से नित्य) नहीं माना जा सकता।
घटाद्यपि कुलालादिसापेक्षं दृश्यते भवत् ।
अतो न तत् पृथिव्यादिपरिणामसमुद्भवम् ॥२१८॥
घट आदि को भी हम कुम्हार आदि की सहायता से ही उत्पन्न हुआ पाते हैं; अतः उनके सम्बन्ध में भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनका एकमात्र कारण पृथ्वी आदि की रूपान्तर प्राप्ति है ।
• तत्रापि देहः कर्ता चेन्नैवासावात्मनः पृथक् ।
पृथगेवेति चेद् भोग आत्मनो युज्यते कथम् ? ॥२१९॥
कहा जा सकता है कि घट आदि का कर्ता भी (कुम्हार आदि का) शरीर है (कोई आत्मा नहीं), लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि शरीर आत्मा
१. ख का पाठ : देहकर्ता ।।
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