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तीसरा स्तबक
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स्थान पर एक पाठान्तर है 'आर्षं धर्मोपदेशं च' उस दशा में भी कारिका के हिन्दी अनुवाद में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं आएगा ।
(२) प्रकृति-पुरु षवाद खण्डन प्रधानोद्भवमन्ये तु मन्यन्ते सर्वमेव हि । महदादिक्रमेणेह कार्यजातं विपश्चितः ॥२११॥
कुछ दूसरे बुद्धिमानों का कहना है कि जगत् का समूचा कार्यकलाप 'प्रधान' नाम वाले तत्त्व से उत्पन्न हुआ है, जहाँ उत्पत्तिकम महत् आदि तत्त्वों को बीच में डालता हुआ चलता है।
प्रधानाद् महतो भावोऽहंकारस्य ततोऽपि च ।
अक्षतन्मात्रवर्गस्य तन्मात्राद् भूतसंहतेः ॥२१२॥
(यह है उक्त उत्पत्तिक्रम :) प्रधान से महत् (नामान्तर 'बुद्धि') की उत्पत्ति होती है, महत् से अहंकार की, अहंकार से (ग्यारह) इन्द्रियों की तथा (पाँच) तन्मात्रों (सूक्ष्म भूतों) की, तन्मात्र से (पाँच) महाभूतों (स्थूल भूतों) की।
घटाद्यपि पृथिव्यादिपरिणामसमुद्भवम् । नात्मव्यापारजं किञ्चित् 'तेषां लोकेऽपि विद्यते ॥२१३॥
जहाँ तक घट आदि की उत्पत्ति का प्रश्न है उसका कारण भी (प्रस्तुत वादियों के मतानुसार) पृथ्वी आदि की रूपान्तर-प्राप्ति मात्र है; (यह इसलिए कि) इन वादियों के मतानुसार जगत् की किसी भी वस्तु की उत्पत्ति का कारण आत्मा की कोई क्रिया नहीं ।
अन्ये तु ब्रुवते ह्येतत् प्रक्रियामात्रवर्णनम् ।। अविचार्यैव तद् युक्त्या श्रद्धया गम्यते परम् ॥२१४॥
लेकिन किन्हीं दूसरे वादियों का कहना है कि उपरोक्त सब वर्णन एक . मनगढन्त कल्पना मात्र है तथा यह कि जो व्यक्ति इस वर्णन को स्वीकार करते हैं वे युक्तिपूर्वक विचार किए बिना एवं श्रद्धा के वशीभूत होकर ऐसा करते हैं।
युक्त्या तु बाध्यते यस्मात् प्रधानं नित्यमिष्यते । तथात्वाप्रच्युतौ चास्य महदादि कथं भवेत् ? ॥२१५॥ उक्त वर्णन युक्ति के तो विरुद्ध जाता है; क्योंकि यहाँ प्रधान को नित्य
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