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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
को
कुण्ठित रहती है; इसी मान्यता को ध्यान में रखते हुए हरिभद्र आत्मा - 'परमैश्वर्ययुक्त' कह रहे हैं ।
शास्त्रकारा महात्मानः प्रायो वीतस्पृहा भवे । सत्त्वार्थ संप्रवृत्ताश्च कथं तेऽयुक्तभाषिणः ॥२०८॥
सचमुच, शास्त्रों के रचयिता महापुरुष सांसारिक कामनाओं से प्रायः मुक्त हुआ करते हैं तथा वे परोपकार के उद्देश्य से ही सब कुछ किया करते हैं; तब वे ऐसी बात क्यों कहेंगे, जो युक्तिसंगत न हो ।
टिप्पणी- हरिभद्र का तर्क यह है कि क्योंकि शास्त्रों के रचयिता महापुरुष सत्यवक्ता हुआ करते हैं और क्योंकि ईश्वरकर्तृत्ववाद एक अर्थविशेष में ही तर्कसंगत सिद्ध होता है, इसलिए शास्त्रों में जहाँ भी ईश्वरकर्तृत्ववाद का समर्थन है वहाँ उसे यही अर्थविशेष पहनाना चाहिए ।
अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्यग् मृग्यो हितैषिणा । न्यायशास्त्राविरोधेन यथाऽऽह मनुरप्यदः ॥ २०९ ॥
अतः अपना हित चाहने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह शास्त्रकारों के आशय को भली प्रकार से खोज निकाले और इस प्रकार से कि उक्त आशय का तर्क तथा शास्त्रवचन के साथ विरोध न हो । इस सम्बन्ध में मनु ने भी कहा है ।
टिप्पणी-शास्त्रवचनों के सम्बन्ध में यह कहने का कि उनके आशय का विरोध शास्त्रवचनों के साथ नहीं होना चाहिए, तात्पर्य यही है कि किन्हीं संदिग्धार्थक शास्त्रवचनों को ऐसा अर्थ नहीं प्रदान किया जाना चाहिए कि उनका विरोध किन्हीं असंदिग्धार्थक शास्त्रवचनों के साथ आ पड़े ।
आर्षं च धर्मशास्त्रं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः ॥ २१० ॥
(वेद आदि) ऋषिप्रणीत ग्रन्थों का तथा ( पुराण आदि) धर्मशास्त्रीय ग्रंथों का अनुसंधान (आशय अन्वेषण) वेद तथा धर्मशास्त्र की शिक्षाओं के विरुद्ध न जाने वाले तर्क की सहायता से करने वाला व्यक्ति ही धर्म को जानता है और कोई नहीं ।
टिप्पणी — यशोविजयजी की सूचनानुसार 'आर्षं च धर्मशास्त्रं च ' के
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