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तीसरा स्तबक
ईश्वर: परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् ।
यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः ॥२०४॥
'ईश्वर'-परमात्मा का ही (अर्थात् मुक्ति के द्वार पर खडे सर्वज्ञ मनुष्य का ही) दूसरा नाम है, और क्योंकि ऐसे परमात्मा द्वारा सुझाए गए आचरणमार्ग पर चलने से एक प्राणी को मुक्ति की प्राप्ति होती है इसलिए इस परमात्मा को गौण अर्थ में इस मुक्ति का कर्ता भी कहा जा सकता है ।
टिप्पणी-'परमात्मा' शब्द का जैन परम्परा-सम्मत अर्थ समझने के लिए कारिका ११ की टिप्पणी द्रष्टव्य है ।
तदनासेवनादेव यत् संसारोऽपि तत्त्वतः ।।
तेन तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥२०५॥
दूसरी ओर, एक प्राणी का संसार-चक्र (-पुनर्जन्मचक्र) में फँसे रहना वस्तुतः उक्त परमात्मा द्वारा सुझाए गए मार्ग पर न चलने का ही फल है, और ऐसी दशा में इस परमात्मा को इस संसार-चक्र का कर्ता मानने में भी दोष नहीं।
कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यतः केषांचिदादरः ।
अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥२०६॥
कुछ व्यक्तियों के मन में उक्त परमात्मा की शिक्षाओं के प्रति श्रद्धा यह समझने के फलस्वरूप ही उत्पन्न होती है कि यह परमात्मा (प्राणियों के बन्ध-मोक्ष का) कर्ता है; यही कारण है कि इन व्यक्तियों की मनःस्थिति को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने परमात्मा को (प्राणियों के बंधमोक्ष का) कर्ता कहा है।
परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव चेश्वरः ।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥२०७॥ ..
अथवा, परम ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण एक आत्मा को ही ईश्वर माना जा सकता है, और क्योंकि एक प्राणी द्वारा की जाने वाली उन उन क्रियाओं का कर्ता उस प्राणी की आत्मा है इसलिए ईश्वरकर्तृत्ववाद एक निर्दोष वाद सिद्ध होता है ।
टिप्पणी-जैन मान्यतानुसार एक आत्मा स्वभावतः सर्वसामर्थ्यसंपन्न है लेकिन संसारावस्था में उसकी यह सामर्थ्य कर्म-संचय के फलस्वरूप न्यूनाधिक
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