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________________ शास्त्रवार्तासमुच्चय ये काम यदि स्वतः फल देने में असमर्थ हैं तब तो हमारी पिछली आपत्ति अपने स्थान पर बनी रहती है (अर्थात् वह आपत्ति कि ईश्वर क्यों किन्हीं प्राणियों को स्वर्ग ले जाने वाले कामों की ओर प्रेरित करता है और किन्हीं को नरक ले जाने वाले कामों की ओर) और यदि वे स्वतः फल देने में समर्थ हैं तो ईश्वर की कल्पना भक्तिमात्र है (अर्थात् तब उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता) । आदिसर्गेऽपि नो हेतुः कृतकृत्यस्य विद्यते । प्रतिज्ञातविरोधित्वात् स्वभावोऽप्यप्रमाणकः ॥२०१॥ फिर जब ईश्वर एक कृतकृत्य आत्मा है (अर्थात् एक ऐसी आत्मा जिसे कोई काम करना शेष नहीं) तब उसके द्वारा सृष्टि का आरम्भ किए जाने का कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि ऐसा कोई कारण मानने पर ईश्वरवादी के मूलमंतव्य के साथ (अर्थात् उसके इस मन्तव्य के साथ कि ईश्वर एक कृतकृत्य आत्मा है) विरोध आ खड़ा होगा । और वह कहना कि यह सब ईश्वर का स्वभाव ही है एक अप्रामाणिक बात है (क्योंकि वस्तुतः ईश्वर का अस्तित्व ही प्रमाण सिद्ध नहीं)। कर्मादेस्तत्स्वभावत्वे न किञ्चिद् बाध्यते विभोः । विभोस्तु तत्स्वभावत्वे कृतकृत्यत्वबाधनम् ॥२०२॥ कर्म आदि को उक्त स्वभाव वाला मानने पर (अर्थात् उन्हें ईश्वर पर निर्भर रहे बिना फल-जनन में समर्थ मानने पर) ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में (तो) किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं होती (यद्यपि तब ईश्वर प्राणियों के कामों का प्रेरक नहीं), लेकिन यदि ईश्वर को उक्त स्वभाव वाला माना जाए (अर्थात् यदि उसे कामों का प्रेरक, कामों का फल-दाता आदि माना जाए) तो इस मान्यता के सम्बन्ध में कठिनाई उपस्थित होती है कि ईश्वर एक कृत-कृत्य आत्मा है । ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । .. सम्यग् न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धयः ॥२०३॥ हाँ, यह सब कुछ कहने के बाद हम यह भी कह सकते हैं कि ईश्वरकर्तृत्ववाद एक अर्थविशेष में एक समुचित तथा तर्कसंगत वाद है उदाहरण के लिए, शुद्धबुद्धि वाले किन्हीं वादियों का कहना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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