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तीसरा स्तबक
(१) ईश्वरवाद - खंडन
ईश्वरः प्रेरकत्वेन कर्ता कैश्चिदिष्यते । अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तोऽनादिशुद्धश्च सूरिभिः ॥१९४॥
कुछ बुद्धिमानों की मान्यता है कि ( प्राणियों के समूचे क्रिया-कलाप का) प्रेरक रूप से कर्ता ईश्वर है और यह ईश्वर अचिन्त्य चैतन्यशक्ति वाला तथा अनादि-शुद्ध है ।
टिप्पणी ईश्वर को 'अचिन्त्य चैतन्यशक्ति वाला' कहने का आशय यह है कि शरीर, इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना भी जगत् की सब वस्तुओं को जान लेना एक अद्भुत ईश्वरीय लीला है ।
ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।
ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ १९५॥
(इस ईश्वर के संबन्ध में कहा गया है कि) उस जगत्पति का ज्ञान, उसका वैराग्य, उसका ऐश्वर्य, उसका धर्म ये चारों अप्रतिहत ( अर्थात् सर्व-समर्थ) हैं तथा सहजसिद्ध है ।
टिप्पणी-ईश्वर का यह वर्णन सांख्य दर्शन की शब्दावली में किया गया है । यद्यपि स्वयं सांख्य ग्रन्थों में ईश्वरवाद का समर्थन नहीं पाया जाता, लेकिन अन्य सत्ता - शास्त्रीय प्रश्नों पर सांख्य दर्शन के मत को प्रायः ज्यों का त्यों अपनाने वाले योगसूत्र एवं भाष्य में ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गयी है तथा उसे एक पुरुषविशेष (अर्थात् एक आत्मा - विशेष) माना गया है । सांख्य दर्शन की मान्यतानुसार एक साधारण मनुष्य में पाए जाने वाले ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य एवं धर्म इस मनुष्य के अपने कृतित्व का फल हुआ करते हैं तथा न्यूनाधिक सामर्थ्यसम्पन्न हुआ करते हैं; योग- सूत्र - भाष्य की मान्यतानुसार ईश्वर में पाए जाने वाले ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य एवं धर्म सहजसिद्ध हैं तथा सर्वसामर्थ्यसंपन्न है । 'ज्ञान' तथा
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