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दूसरा स्तबक
बनाकर ही उक्त कार्य का कारण बनता है (अकेला नहीं) ।
अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम् । गर्भादेः कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः ॥१९१॥
अतः तार्किक मार्ग का अनुसरण करने वालों को मानना चाहिए कि काल आदि सब तत्त्व (अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, कर्म) आपस में मिलकर ही गर्भप्रवेश आदि कार्यों के कारण बनते हैं (अकेले अकेले नहीं) ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से हम जान पाते हैं कि कालवाद, स्वभाववाद तथा नियतिवाद के विरुद्ध अभी उठाई गई कर्मवादी की आपत्तियों से हरिभद्र स्वयं तत्त्वतः सहमत हैं । उनका नया सुझाव इतना ही है कि काल, स्वभाव, नियति तथा कर्म चारों ही मिलकर जगत की घटनाओं के कारण बनते हैं । वस्तुतः कालवाद, स्वभाववाद तथा नियतिवाद के बीच पारस्परिक मतभेद इतने गहरे नहीं जितने गहरे मतभेद इन तीनों के तथा कर्मवाद के बीच हैं । यदि प्रथम तीन वादों को 'कार्य-कारणतावाद' यह सामान्य नाम दिया जाए तो कहना होगा कि हरिभद्र का अपना मत कार्य-कारणतावाद तथा कर्मवाद के बीच समन्वय स्थापित करने का है।
न चैकैकत एवेह क्वचित् किञ्चिदपीक्ष्यते ।
तस्मात् सर्वस्य कार्यस्य सामग्री जनिका मता ॥१९२॥
क्योंकि उक्त तत्त्व अकेले अकेले कहीं भी तथा किसी भी कार्य को जन्म देते नहीं पाए जाते अतः यही माना जाना चाहिए कि ये तत्त्व सभी कार्यों का कारण सम्मीलित रूप से बनते हैं ।
स्वभावो नियतिश्चैव कर्मणोऽन्ये प्रचक्षते । धर्मावन्ये तु सर्वस्य सामान्येनैव वस्तुनः ॥१९३॥
स्वभाव तथा नियति के सम्बन्ध में कुछ वादियों की मान्यता है कि वे कर्म के धर्म हैं तथा कुछ की यह कि वे सभी वस्तुओं के धर्म समान रूप
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह प्रतीत होता है कि कुछ वादी नियति तथा स्वभाव की कल्पनाओं को प्रश्रय कर्मवाद को स्वीकार करने के प्रसंग में ही देते हैं तथा कुछ वादी सभी प्रसंगों में ।
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