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शास्त्रवार्तासमुच्चय
स्वभाव को भी तब तक नहीं माना जा सकता जब तक इस स्वभाव के सहकारी के रूप में किसी तत्त्वान्तर की कल्पना न की जाए। .
ततस्तस्याविशिष्टत्वाद् युगपद् विश्वसंभवः ।
न चासाविति सद्युक्त्या तद्वादोऽपि न संगतः ॥१८७॥
ऐसी स्थिति में (अर्थात् स्वभाव को ही जगत् की वस्तुओं का एकमात्र कारण मानने पर) मानना पड़ेगा कि जगत् की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति एक साथ होती है और वह इसलिए कि (जगत की वस्तुओं के कारण रूप से कल्पित) स्वभाव एक रूप वाला है; लेकिन हम देखते हैं कि जगत् की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति एक साथ नहीं होती और इसका अर्थ यह हुआ कि स्वभाववाद भी कोई तर्कसंगत वाद नहीं ।
तत्तत्कालादिसापेक्षो विश्वहेतुः स चेन्ननु । मुक्तः स्वभाववादः स्यात् कालवादपरिग्रहात् ॥१८८॥
कहा जा सकता है कि काल आदि को सहकारी बना कर स्वभाव सचमुच ही जगत् की वस्तुओं का कारण बनता है, लेकिन ऐसा कहने का अर्थ हुआ स्वभाववाद को तिलांजलि देना और वह इसलिए कि तब तो आश्रय कालवाद (आदि) का लिया गया ।
कालोऽपि समयादिर्यत् केवलं सोऽपि कारणम् ।
तत एव ह्यसंभूतेः कस्यचिन्नोपपद्यते ॥१८९॥
फिर यह 'काल' नाम वाला तत्त्व भी तो वही है जिसे हम 'समय' आदि नामों से जानते हैं और यह तत्त्व अकेला किसी वस्तु का कारण नहीं बनता; यह इसलिए कि किसी वस्तु की उत्पत्ति अकेले काल से होती नहीं देखी जाती है।
यतश्च काले तुल्येऽपि सर्वत्रैव न तत्फलम् । - अतो हेत्वन्तरापेक्षं विज्ञेयं तद् विचक्षणैः ॥१९०॥
फिर हम देखते हैं कि एक काल विशेष के सर्वत्र समान भाव से पर्तमान रहने पर भी उस कालविशेष में उत्पन्न होने वाला कोई कार्यविशेष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता (अपितु किसी स्थलविशेष पर ही उत्पन्न होता है); अतः बुद्धिमानों को मानना चाहिए कि उक्त काल किन्हीं दूसरे कारणों को सहकारी
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